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________________ प्रमेयकमलमार्त्तण्डे धूमादयो वा सर्वे भावाः सन्निधानवत् प्रत्यक्षे विशदतया प्रतिभान्ति, प्राणिमात्रस्य सर्वज्ञतापत्ते रनुमानानर्थक्यप्रसङ्गाच्च । अविचारकतया चाध्यक्षं 'यावान् कश्चिद्ध मः स सर्वोपि देशान्तरे कालान्तरे वाग्निजन्माऽन्यजन्मा वा न भवति' इत्येतावतो व्यापारात् कर्त्तुं मसमर्थम् । पुरोव्यवस्थितार्थेषु प्रत्यक्षतो व्याप्ति प्रतिपद्यमानः सर्वोपसंहारेण प्रतिपद्यते इत्यप्यसुन्दरम् ; प्रविषये सर्वोपसंहारायोगात् । ३०८ प्रत्यक्ष पृष्ठभाविनो विकल्पस्यापि तद्विषयमात्राध्यवसायत्वात् सर्वोपसंहारेण व्याप्तिग्राहकत्वाभाव:, तथा चानिश्चित प्रतिबन्धकत्वाद्ददेशान्तरादौ साधनं साध्यं न गमयेत् । ननु कार्यं धूमो हुतभुजः कार्यधर्मानुवृत्तितो विशिष्टप्रत्यक्षानुपलम्भाभ्यां निश्चितः, स देशान्तरादौ तदभावेपि भवंस्तत्कार्यतामेवातिवर्त्तत इत्याकस्मिकोऽग्निनिवृत्ती न क्वचिदपि निवर्त्तेत, विशदरूपसे प्रतीत होते हुए दिखायी नहीं देते, यदि प्रतीत होते तो अशेष प्राणी सर्वज्ञ होने की आपत्ति आयेगी तथा अनुमान प्रमाण भी व्यर्थ ठहरेगा क्योंकि सभी पदार्थ प्रत्यक्ष हो चुके हैं तो अनुमानकी क्या आवश्यकता तथा परमतानुसार प्रत्यक्ष ज्ञान निर्विकल्प होने से 'जितना भी धूम है वह सब देशान्तर तथा कालांतर में भी अग्नि से ही प्रादुर्भूत है अन्य से प्रादुर्भूत नहीं होता' इतने अधिक प्रतीति के कार्यको करने में असमर्थ है, वह तो केवल सामने उपस्थित हुए पदार्थों का ही ग्राहक है । शंका- सामने उपस्थित पदार्थों में पहले प्रत्यक्ष द्वारा व्याप्ति को ग्रहण कर ---- लेते हैं और फिर क्रमशः सर्वोपसंहार रूपसे ग्रहण करते हैं ? समाधान - यह कथन असुंदर है, जो अपना विषय नहीं है उस अविषय भूत पदार्थ में सर्वोपसंहार रूपसे जानना अशक्य है । प्रत्यक्ष के पश्चात् प्रादुर्भूत हुए विकल्प ज्ञान द्वारा व्याप्ति का ग्रहण होना भी असंभव है, क्योंकि वह भी सन्निहितका ही ग्राहक है अतः सर्वोपसंहार से व्याप्ति का ग्राहक होना शक्य नहीं, इस तरह प्रत्यक्ष द्वारा व्याप्ति का अनिश्चय होने से देशांतरादिमें वह साधन स्वसाध्यका गमक नहीं हो सकता । यहां पर कोई कहता है कि - कार्य धर्मकी अनुवृत्ति होनेसे प्रत्यक्ष एवं प्रनुपलंभ द्वारा धूम अग्निका कार्य है ऐसा निश्चित हो जाता है, यदि वह देशान्तर में अग्नि के अभावमें भी उपलब्ध होता है तो उसका कार्य कहाता, इस तरह अकारण रूप सिद्ध होने से कहीं पर अग्निके निवृत्त होने पर भी निवृत्त नहीं होगा तथा उसके सद्भाव होने पर नियमितपने से सद्भाव रूप भी नहीं रहेगा, इस प्रकार खरविषाण के समान उस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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