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तर्कस्वरूपविचारः
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धर्मविशेषः प्रवचनादन्यतः प्रतिपत्तु शक्यः, नाप्यतोनुमानादन्यतः कुतश्चित्प्रमाणादादित्यस्य गमनशक्तिसम्बन्धः साध्यत्वाभिमतः, साधनं वा गतिमत्त्वं देशादेशान्तरप्राप्तिमत्त्वानुमानादन्यत इति । तौ निमित्त यस्य व्याप्तिज्ञानस्य तत्तथोक्तम् । व्याप्तिः साध्यसाधनयोरवि नाभावः, तस्य ज्ञानमूहः।
न च बालावस्थायां निश्चयानिश्चयाभ्यां प्रतिपन्नसाध्यसाधनस्वरूपस्य पुनर्वृद्धावस्थायां तद्विस्मृतौ तत्स्वरूपोपलम्भेप्यविनाभावप्रतिपत्त रभावात्तयोस्तदहेतुत्वम्; स्मरणादेरपि तद्धतुत्वात् ।
होना अनुपलंभ है ऐसा उपलंभ अनुपलंभ शब्दों का अर्थ यहां इष्ट नहीं है, इसीलिये जो साध्य साधन इन्द्रिय गम्य नहीं है जिनका उपलंभ अनुपलंभ [साध्य साधन के अविनाभाव का ज्ञान ] आगम एवं अनुमान प्रमाण द्वारा होता है उनके व्याप्ति ज्ञान का भी तर्क प्रमाण में संग्रह हो जाता है, अतः सूत्रोक्त तर्क प्रमाण लक्षण अव्याप्ति दोष युक्त नहीं है । जिस साध्य साधन का अविनाभाव प्रागम द्वारा गम्य है उसका उदाहरण-इस प्राणो के धर्म विशेष [ पुण्य ] है क्योंकि विशिष्ट सुखादि के सद्भावकी अन्यथानुपपत्ति है । जिस साध्य साधन की व्याप्ति अनुमान गम्य होती है उसका उदाहरण-सूर्य के गमन शक्ति सद्भाव है क्योंकि गतिमानकी अन्यथानुपपत्ति है इत्यादि । प्राणो के पुण्य विशेष को जानने के लिये पागम को छोड़ कर अन्य कोई प्रमाण नहीं है तथा अनुमान प्रमाण को छोड़कर अन्य किसी प्रमाणसे सूर्य के गमन शक्ति को जानना भी शक्य नहीं है, अर्थात् गमन शक्तिका संबंध रूप साध्य और गतिमत्व रूप साधन देश से देशांतर की प्राप्ति रूप हेतु वाले अनुमान द्वारा ही उक्त व्याप्ति का ज्ञान होता है। इस प्रकार वे उपलंभ और अनुपलंभ हैं निमित्त जिस व्याप्ति ज्ञानके उसे कहते हैं "उपलंभानुपलंभ निमित्तं" यह इस पद का समास है । साध्य और साधनके अविनाभावको व्याप्ति कहते हैं और उसके ज्ञान को तर्क कहते हैं।
बाल अवस्था में जिस साध्य साधन का स्वरूप उपलंभ अनुपलंभ द्वारा निश्चित किया था वह वृद्धावस्थामें विस्मृत होजाने पर उस स्वरूप के उपलब्ध होते हुए भी अविनाभाव का ज्ञान नहीं होता अतः उक्त उपलंभ अनुपलंभ व्याप्ति ज्ञान के हेतु नहीं हैं ? ऐसी आशंका भी नहीं करना चाहिये, उपलंभादि के समान स्मरणादि ज्ञानोंको भी व्याप्ति ज्ञान का हेतु माना गया है, साध्य के होने पर ही साधन होता है साध्य के अभाव में साधन होता ही नहीं इस प्रकार के स्वरूप वाले निश्चय अनिश्चय को बार बार स्मरण करते हुए और प्रत्यभिज्ञान करते हुए जीव के व्याप्ति का ज्ञान होता ही है अतः
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