SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ २६ ] विषय अनेकान्तकी भावनासे विशिष्ट प्रदेश में ज्ञानरूप शरीरादिका लाभ होना मोक्ष है ऐसा जैन मानते हैं ..... ब्रह्माद्वैतवादी श्रात्माके एकत्वका ज्ञान होनेसे परमात्मा में लय होना मोक्ष है ऐसा मानतें हैं.... प्रकृति और पुरुष के भेद ज्ञान मोक्षका कारण है और वह चैतन्यका स्वरूप में अवस्थान हो जाना है ऐसा सांख्य कहते हैं..... जैन द्वारा वैशेषिक के मंतव्यका निरसन ..... बुद्धिप्रद विशेष गुणोंका अत्यंत उच्छेद होता है क्योंकि ये संतानरूप है ऐसा वैशेषिकका हेतु श्राश्रय सिद्ध है, संतानत्व हेतु विरुद्ध दोष युक्त भी है...... तत्त्वज्ञानसे मिथ्याज्ञान नष्ट होना आदि कथन प्रयुक्त है...... समाधि के बलसे अनेक शरीरोंको उत्पन्न कर योगीजन कर्मोंका उपभोग कर डालते हैं ऐसा कहना असत्य है.... २२८ २२६ ब्रह्मवादी आनंदरूप मोक्ष कथंचित् इष्ट होता किन्तु उस आनंदका नित्य मानना प्रयुक्त है...... बौद्धका विशुद्ध ज्ञानोत्पत्ति रूप मोक्ष तब मान्य होता जब वह ज्ञान संतान अन्वय युक्त हो.... २३१ सुप्त उन्मत्तादि दशा में ज्ञानकी सिद्धि...... २३७–२४६ मुक्ति में भी अनेकांत की व्यावृत्ति नहीं है, अनेकांत दो प्रकारका है - क्रम अनेकांत और अक्रम अनेकांत.... सांख्य के मोक्षस्वरूपका निरसन.... मोक्ष स्वरूप विचार का सारांश स्त्रीमुक्ति विचार.... श्वेतांबर - स्त्रियों के भी मुक्ति होती है, क्योंकि उनके मोक्षके अविकल कारण संभव है...... दिगंबर - स्त्रियों में ज्ञानादि गुरणोंका परम प्रकर्ष नहीं होता श्रतः उनमें अविकल कारण हेतु प्रसिद्ध है...... स्त्रियों में मोक्षका काररणभूत संयम नहीं..... . बाह्याभ्यंतर परिग्रहके कारण स्त्रियोंके मोक्षके योग्य जैसा संयम नहीं है...... आगम भी स्त्रीमुक्ति समर्थक नहीं ... सारांश..... परोक्ष प्रमाणका स्वरूप एवं भेद स्मृति प्रामाण्य विचार प्रत्यभिज्ञान प्रामाण्य विचार Jain Education International For Private & Personal Use Only पृष्ठ २१६ २१७ २१८ २२० २२४ २२६ २४८ २५० २५४–२५६ २५७-२७२ २५७ २५७ २६० २६२ २६७ २७१-२७२ २७३ २७६–२८२ २८३-३०३ www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy