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[ २५ ] विषय कवलाहार विचार
१७७-१६६ जीवन्मुक्त दशामें अरहंत कवलाहार करते हैं ऐसा श्वेतांबर कहते हैं.... प्रमत्त गुणस्थानमें परमार्थभूत वीतरागता नहीं है अतः वहां कवलाहार होना शक्य है..... बिना अभिलाषाके आहार होना रूप अतिशय माने तो आहार नहीं करना रूप अतिशय ही क्यों न माना जाय?....
१७६ कवलाहार ग्रहण करने वाले के अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान संभव नहीं..... लाभांतरायकर्मका सर्वथा नाश होनेसे दिव्य परमाणोंका आगमन प्रतिसमय होता है और उसीसे केवलोके शरीर की स्थिति बनी रहती हैं....
१८४ मोहनीयके अभावमें असाता कार्य करने में असमर्थ है....
१८६ अनाकांक्षारूप क्षुधा माने तो वह भी दुःखरूप ही घटित होती है....
१६१ भगवान्को देवगण पाहार कराते हैं ऐसा सिद्ध नहीं होता....
१६२ केवलीके ग्यारह परीषह उपचारसे माने हैं....
१६५ भोजन करते समय दिखायी न देना रूप अतिशय मानते हैं तो भोजन नहीं करना रूप अतिशय ही क्यों न स्वीकारें ? मोक्षस्वरूप विचार
२००-२५६ वैशेषिकका पक्ष-अनंत चतुष्टय स्वरूप लाभको मोक्ष नहीं कहते अपितु बुद्धि आदि नौ प्रात्मगुणोंके उच्छेद होनेको मोक्ष कहते हैं.... तत्त्वज्ञानको मोक्षका कारण माना है.... मिथ्यज्ञानके नष्ट होने पर राग द्वष उत्पन्न नहीं होते उसके भाव में मन वचनका कार्य समाप्त होता है उसके प्रभाव में धर्मादि नष्ट होते हैं....
२०२ तत्त्व ज्ञान साक्षात् कर्म नाश में प्रवृत्ति नहीं करता....
२०३ विघ्न बाधायें उपस्थित न हो अतः नित्य नैमित्तिक क्रिया की जाती है.... वेदान्ती-वैशेषिक बुद्धि प्रादि गुणोंका मोक्ष में प्रभाव मानते हैं किन्तु हम चैतन्यका भी वहां प्रभाव मानते हैं, मोक्ष तो आनंद स्वरूप है ....
२०६ वैशेषिक द्वारा वेदांतोके मोक्षस्वरूपका निरसन....
२०७-२१२ आप वेदान्ती आत्माके सुख नामा गुणको नित्य मानते हैं या अनित्य नित्य है तो सदा रहना चाहिये और अनित्य है तो....
२०७ विशुद्ध ज्ञानकी उत्पत्ति होना मोक्ष है ऐसा बौद्ध अभिमत मोक्ष स्वरूप प्रयुक्त है....
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