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________________ पृष्ट [ २४ ] विषय करुणा से सृष्टि रचे तो सुखदायक शरीरादि क्यों नहीं रचता ?.... १३२ राजा के समान ईश्वर यदि कर्मानुसार फल देता है तो वह रागी द्वषो हो जायगा.... १३४ जो समर्थ स्वभावी होता है वह सहायक की अपेक्षा नहीं करता.... पृथ्वी पर्वत आदि पदार्थ एक एक स्वभाव पूर्वक नहीं होते, क्योंकि वे विभिन्न देश, विभिन्न काल एवं विभिन्न माकार वाले हैं... प्रकृति कत्तत्ववाद १४५-१७६ सांख्य-सृष्टि की प्रक्रिया प्रधानसे प्रसूत है इत्यादि पूर्वपक्ष १४५-१५२ प्रकृतिसे महान् उत्पन्न होता है, उससे अहंकार उससे ग्यारह इन्द्रियां, उनसे पांच तन्मात्रायें.... १४६ कारण जिसरूप होता है कार्य तदनुरूप ही होता है ... १४७ पांच हेतुत्रोंसे सत्कार्यबादकी सिद्धि.... महदादि भेदोंका परिमारण होना इत्यादि हेतुअोंसे प्रधानमें ही जगत्का कत्तत्व सिद्ध होता है.... १५१ जैन द्वारा प्रकृति कर्त्त त्वका निरसन.... १५३- १७६ महदादि भेद प्रकृतिसे अभिन्न मानने के कारण उनमें कार्य कारण भाव बन नहीं सकता.... १५३ कार्य कारण भाव अन्वय व्यतिरेक द्वारा जाना जाता है किन्तु प्रधान और महदादिमें वह घटित नहीं होता... १५४ असत् प्रकरणात् इत्यादि हेतु असत् कार्यवादके पक्ष में भी समानरूपसे घटित होते हैं.... १५७ शक्तिकी अपेक्षा कार्यको सत् माने तो भी ठीक नहीं.... १५८ शक्तिकी अभिव्यक्तिके लिये कारकोंका व्यापार मानना भी घटित नहीं होता.... अभिव्यक्ति किसे कहते हैं स्वभावमें अतिशय होना या तद् विषयक ज्ञान होना, अथवा उसके उपलब्धिके आवरणका अपगम होना ? १६०-१६१ कारण शक्तिका प्रतिनियम तो असत् कार्यवादमें भी घटित होता है.... भेदोंका समन्वय होनेसे एक प्रधान ही कारणरूप सिद्ध होता है ऐसा हेतु भी प्रसिद्ध है.... समन्वयात् इस हेतुमें अनेकांत दूषण है.... १६७ निरीश्वर सांख्यका पक्ष भी असत् है.... प्रधान और ईश्वर सम्मिलित होकर कार्य करते हैं ऐसा कहना भी सिद्ध नहीं होता.... जगत्को उत्पत्ति स्थिति और प्रलय रूप क्रिया करनेकी सामर्थ्य ईश्वर और प्रधान में एक साथ है कि नहीं ?.... सत्वादि गुणोंका आविर्भावादि भी सिद्ध नहीं.... १७३ १७० १७२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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