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________________ मोक्षस्वरूप विचार: २४३ धूमः प्रयत्नशतैरपि धूमादन्यतो वा जायते धूमप्रभवो वाग्नेरिति । दृश्यन्ते च ते यादृशा एव सुषुप्तस्य ताशा एवास्यापि । तन्न ते भिन्नकारणप्रभवाः । चैतन्येतरप्रभवांश्च प्राणादीन् विवेचयन्वीतरागेतर - प्रभवव्यापारादीनपि विवेचयतु । तथा च "सरागा अपि वीतरागवच्च ष्टन्ते वीतरागाश्च सरागवदिति वीतरागेतरविभागो निश्चेतुमशक्यः ।" [ ] इति प्लवते । धूमरचाग्नेर्धं माच्चोत्पद्यमानो यथा प्रतिपन्नस्तथा प्राणादिश्चैतन्यात्तदभावाश्च्चोत्पद्यमानः स्वात्मनि परत्र चानेन प्रत्येतुं न शक्यते क्वचित्तदभावस्य निश्चेतुमशक्यत्वादित्युक्तम् । धूमे च करता है उसके प्राणादि चैतन्य प्रभव होनेसे सुप्त जैसे प्रतीत नहीं होने चाहिये किन्तु सुप्त जैसे ही प्रतीत होते हैं । ग्रग्निसे प्रादुर्भूत धूम सैंकड़ों प्रयत्न द्वारा भी धूम से या अन्यसे प्रादुर्भूत नहीं होता और धूम प्रभव धूम कभी अग्निसे प्रादुर्भूत नहीं होता, किन्तु यहां जिसतरह के ही प्राणादि सुप्तके होते हैं उसीतरह के ही छलसे सुप्त हुए जाग्रत पुरुष दिखाई देते हैं, अतः ये प्राणादि भिन्न भिन्न कारणसे प्रादुर्भूत नहीं हैं । तथा चैतन्य प्रभव प्राण और प्राणादि प्रभव प्राण इनमें पृथक्करण करना इष्ट हैं तो आपको सरागप्रभव व्यापार [ वचनादिकी क्रिया ] और वीतराग प्रभव व्यापार इन दोनोंमें भी पृथक्करण करना होगा और ऐसा करने पर आपका निम्न आगम वाक्य असत् ठहरेगा कि " सराग पुरुष भी वीतराग सदृश क्रिया करते हैं और वीतराग पुरुष भी सराग सदृश क्रिया करते हैं अतः सराग और वीतरागका विभाग निश्चित करना अशक्य है" इत्यादि । किञ्च, जिसप्रकार धूमके दो भेद - अग्नि प्रभव धूम और धूमप्रभव धूम उत्पन्न होते हुए पृथक् पृथक् प्रतीत होते हैं उसप्रकार प्रारणादि के दो भेद चैतन्यप्रभव प्राणादि और प्राणादिप्रभव प्राणादि पृथक् पृथक् चैतन्य एवं चैतन्याभावसे उत्पन्न होते हुए अपनी आत्मामें या परमें इस सौगत द्वारा प्रतीति में लाना शक्य नहीं है क्योंकि कहीं पर [ सुप्तादिमें] प्राणादिके प्रभावका निश्चय करना अशक्य है ऐसा सिद्ध हो चुका है । धूमके विषयमें तो निश्चय हो जाता है, यह धूम अग्नि से उत्पन्न हुआ है अथवा धूमांतरसे उत्पन्न हुआ है ऐसा संदेह होनेपर अग्निके देखने और नहीं देखने से वह संदेह दूर होता है किन्तु प्राणादि विषय में यह सब संभव नहीं है, यह प्राणादि अनंतर चैतन्य से उत्पन्न हुए हैं अथवा भूतभावी चैतन्यसे उत्पन्न हुए हैं ऐसा संदेह होनेपर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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