SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 289
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४४ प्रमेयकमल मार्तण्डे 'किमयं धूमोऽग्नेः, धूमान्तराद्वा' इति सन्देहः प्रवृत्तस्याग्निदर्शनेतराभ्यां निवर्त्तते । प्राणादौ तु 'किमयमनन्तरचैतन्यप्रभवः, किं वा भूतभाविजन्मान्तरचैतन्यप्रभवः' इति सन्देहः कुतो निवर्तेत परचैतन्यस्य द्रष्टु मशक्यत्वात् ? ततोस्य न निश्शङ्क परप्रतिपादनार्थ शास्त्रप्रणयनं युक्तम् । सन्देहात्त तत्प्रणयनं चार्वाकस्याप्यविरुद्धम्, इत्ययुक्तमुक्तम्-“अन्यधियो गतेः” [ ] इति । उसको दूर करना अशक्य है क्योंकि पर चैतन्यको देखना शक्य नहीं है । इसप्रकार परके चैतन्यका अस्तित्व संदेहास्पद हो जाता है, जब पर चैतन्यका अस्तित्व ही निश्चित नहीं है तो आपके बुद्धदेव निश्शंकरीत्या परजीवोंको संबोधन करनेके लिये शास्त्र रचना किसप्रकार कर सकते हैं अर्थात् नहीं कर सकते । यदि कहा जाय कि पर चैतन्यके अस्तित्वका संदेह रहते हुए भी वे शास्त्र रचना कर लेते हैं तब तो चार्वाकमत में भी शास्त्र रचना अविरुद्ध सिद्ध होगी ? इसतरह सिद्ध होनेपर परके बुद्धि का निश्चय अनुमान प्रमाण द्वारा होता है अतः प्रत्यक्ष प्रमाणके समान अनुमान प्रमाण को मानना भी आवश्यक है इत्यादिरूपसे चार्वाक के प्रति बौद्ध द्वारा किया गया प्रतिपादन अयुक्त ठहरता है। ___ भावार्थ-बौद्ध आदि परवादी निद्रितादिदशामें चैतन्यके धर्मस्वरूप ज्ञानका अस्तित्व नहीं मानते हैं, किन्तु निद्रितादिदशामें श्वास लेना आदिरूप चैतन्यके अस्तित्वके बाह्य चिह्न दिखायी देते हैं, जैसे कि जाग्रद् दशामें दिखायी देते हैं, अत: यदि उन चिह्नोंके रहते हुए भी निद्रितादि दशामें चैतन्यका अस्तित्व एवं उसके ज्ञान धर्मको नहीं माना जाय तो जाग्रद् दशामें भी ज्ञानका तथा चैतन्यका अस्तित्व सिद्ध नहीं होगा। इस तरह किसी भी पर व्यक्तिमें ज्ञानादिका निश्चय नहीं हो सकनेसे उसको उपदेश देना भी अशक्य है फिर परोपदेशके हेतुसे बुद्धका शास्त्र प्रणयन करना विरुद्ध ही पड़ता है । यदि बौद्ध इस बातको स्वीकार कर लेवे कि पर व्यक्तिके ज्ञानका निश्चय नहीं होता तो उन्हीं के द्वारा अनुमान प्रमाणको सिद्ध करनेके लिये कहा गया है कि पर व्यक्तिके बुद्धिका ग्रहण अनुमान प्रमाणसे होता है अतः अनुमान प्रमाणका सद्भाव है इत्यादि सो वह कथन विरुद्ध हो जाता है, इसलिये पर व्यक्तिके ज्ञानका निश्चय नहीं होता ऐसा बौद्ध स्वीकार कर ही नहीं सकते । ज्ञानका निश्चय प्राणापान आदि से होता है अर्थात् श्वास लेना आदि जीवित चिह्न द्वारा चैतन्य एवं ज्ञानका अस्तित्व जाना जाता है ये चिह्न जाग्रद् दशाके समान सुप्तादि दशामें भी अवस्थित हैं अतः सुप्तादि दशामें ज्ञानका अभाव है ऐसा कहना पागम एवं तर्क विरुद्ध पड़ता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy