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________________ २४२ प्रमेयकमलमार्तण्डे घटादौ धूमप्रभवधूमादग्न्यनुमानं दृष्टम्, अग्निप्रभवधूमादेव तद्दर्शनात्; इत्यप्यसङ्गतम्; सुषुप्त तरावस्थयोः प्राणादेविशेषाऽप्रतीतेः । यथैव हि सुषुप्तः प्राणिति तथेतरोपि, अन्यथा 'किमयं सुषुप्तः किंवा जागति' इति सन्देहो न स्यात् । यदि चैते सुषुप्तस्य चैतन्यप्रभवा न स्युः किन्तु प्राणादिप्रभवाः; तर्हि जाग्रतः परवञ्चनाभिप्रायेण सुषुप्तव्याजेनावस्थितस्य तादृशामेव तेषां भावो न स्यात् । न ह्यग्नेर्जायमानो भावार्थ-मेरे आत्मामें स्वसंविदित ज्ञानके साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखने वाले श्वासोच्छवास, शरीर उष्णता आदि कार्य हैं अर्थात् आत्मासे तादात्म्य सम्बन्ध वाले ज्ञानके होनेपर ही श्वास आदि क्रिया होती है ऐसा निश्चय किये हुए पुरुष निद्रा युक्त अन्य पुरुष में श्वासादि क्रिया द्वारा ही ज्ञानका एवं आत्माका सद्भाव जान लेते हैं, अन्य किसी हेतुसे नहीं । अतः सिद्ध होता है कि सुप्त दशामें ज्ञानके सद्भावका आवेदन करने वाले प्राणापान शरीर उष्णता आदि हेतु मौजूद हैं । शंका-आत्माके जाग्रद आदि दशात्रोंमें दो प्रकारके प्राण आदि होते हैं, चैतन्य प्रभवप्राणादि और प्राणादिप्रभव प्राणादि, इनमेंसे चैतन्य प्रभव प्राणादि जाग्रद दशामें और प्राणादि प्रभव प्राणादि सुप्तादि दशानोंमें पाये जाते हैं, इनमें जा चैतन्य प्रभव प्राणादि है उससे जाग्रद् दशामें चैतन्यका अनुमान करना तो युक्त है किन्तु प्राणादि प्रभव प्राणादिसे सुप्त आदि दशामें चैतन्यका अनुमान करना युक्त नहीं, जैसे गोपाल घटादि [इन्द्रजालियाके घटमें] धूमसे प्रादुर्भूत धूमद्वारा अग्निका अनुमान करना युक्ति संगत नहीं होता अपितु अग्निसे प्रादुर्भूत धूमद्वारा ही अग्निका अनुमान करना युक्त होता है । अभिप्राय यह है कि सुप्त दशाके प्राण चैतन्यसे उत्पन्न नहीं हुए है अतः उनके द्वारा चैतन्यका अनुमान करना अयुक्त है ? समाधान-यह शंका असत् है, सुप्तादिदशा और जाग्रद् दशा इनमें प्राणादि भिन्न भिन्न हो ऐसा प्रतीत नहीं होता, जिसप्रकार सुप्त पुरुष श्वासको ग्रहण करते हुए जीवित रहता है उसीप्रकार जाग्रद् पुरुष भी श्वासको ग्रहण करते हुए जीवित रहता है, यदि दोनोंमें श्वासादिकी विशेषता होती तो क्या यह व्यक्ति सुप्त है अथवा जाग्रद् है ऐसा संदेह नहीं होता । दूसरी बात यह भी है कि यदि सुप्त व्यक्ति के ये प्राणापानादि चैतन्यप्रभव न होकर प्राणादि प्रभव हैं ऐसा माने तो कोई जाग्रत् पुरुष परको ठगनेके अभिप्रायसे सुप्तके समान पड़ा रहता है उसके प्राणापानादि सुप्त दशाके प्राणादि सदृश प्रतीत नहीं हो सकेंगे, अर्थात् जाग्रत व्यक्ति छलसे सुप्त जैसा बहाना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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