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________________ मोक्षस्वरूपविचारः २४१ तदभावाविनाभाविनो लिङ्गस्यात्रानुपलब्धेः । न तत्र विज्ञानसद्भावेपि लिङ्गाभावः समान इत्यभिधातव्यम्, स्वात्मान स्वसंविदितज्ञानाविनाभावित्वेनाऽवधारितस्य प्राणापानशरीरोष्णताकारविशेषादेस्तत्सद्भावावे दिनो; लिङ्गस्यात्रोपलब्धेः, जाग्रद्दशायामप्यन्यचेतोवृत्तेस्तद्वयतिरेकेणान्यतोऽप्रतीतेः । ननु द्विविधोत्र प्राणादिः चैतन्यप्रभवो जाग्रहशायाम्, प्राणादिप्रभवश्च सुषुप्ताद्यवस्थायामिति । तत्र चैतन्यप्रभवप्राणादेग्रिद्दशायां चैतन्यानुमानं युक्तम्, न पुनः प्राणादिप्राणादेः । न खलुः गोपाल ज्ञानोद्वारा शक्य नहीं है, क्योंकि ये ज्ञान प्रत्यक्ष हैं। इसप्रकार प्रत्यक्षद्वारा सुप्तादिदशा का ज्ञानका अभाव नहीं जाना जाता यह सिद्ध हुआ, अनुमानादि अन्य प्रमाण द्वारा भी उस ज्ञानके अभावको नहीं जान सकते, क्योंकि उसके लिये हेतु आदिकी आवश्यकता होती हैं । अतः निद्रित मूच्छित ग्रादि अवस्थाओंमें प्रात्मा ज्ञान शून्य हो जाता है वहां ज्ञानका सर्वथा अभाव ही हो जाता है ऐसा बौद्ध एवं वैशेषिक आदि परवादी की मान्यता कथमपि सिद्ध नहीं होती। सुप्त आदि दशामें ज्ञानका अभाव है ऐसा पास में बैठा हुआ व्यक्ति जानता है ऐसा दूसरा विकल्प माने तो भी ठीक नहीं, पासमें स्थित व्यक्ति प्रत्यक्षसे तो उस ज्ञानाभावको जान नहीं सकता, क्योंकि उसका वह विषय ही नहीं है, अनुमान द्वारा उसके ज्ञानाभावको जानना चाहे तो उसके लिये अविनाभावी हेतुका होना आवश्यक है किन्तु यहां कारणानुपलब्धि, स्वभावानुपलब्धि व्यापकानुपलब्धि एवं विरुद्ध की विधिरूप कोई भी हेतु उपलब्ध नहीं होता । वैशेषिक-जिसप्रकार सुप्तादि दशामें ज्ञानका अभाव सिद्ध करने के लिये कोई हेतु उपलब्ध नहीं होता उसीप्रकार उक्त दशामें ज्ञानका सद्भाव सिद्ध करनेके लिये भी कोई हेतु उपलब्ध नहीं है । जैन-यह कथन असत् है, पासमें स्थित पुरुष अपने आत्मामें स्वसंविदित ज्ञान के साथ जिनका अविनाभाव है ऐसे श्वासोच्छवास लेना, शरीर उष्ण रहना, अोज युक्त आकार होना इत्यादि हेतुसे ज्ञानका सत्व जानता है अतः उन्हीं हेतुओंसे निद्रित हुए उस अन्य व्यक्तिमें ज्ञानके अस्तित्व को भलीभांति जान लेता है । जाग्रद् दशामें भी अन्य की चित्तवृत्ति का जानना इन्हीं हेतुोंसे होता है, किसी अन्य हेतुसे तो वह चित्तवृत्ति प्रतीत नहीं होती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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