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________________ २३८ प्रमेयकमलमार्तण्डे सामग्रीविशेषवशाद्धि बाह्याध्यात्मिकार्थविचारविधुरं गच्छत्तृणस्पर्शज्ञानसमानं सुषुप्तावस्थायां ज्ञानमास्ते । न हि स्वपरप्रकाशस्वभावत्वमात्रेणेवास्य तन्निरूपणसामर्थ्यम्; सर्वत्रानभिभूतस्यैवार्थस्य स्वकार्यकारित्वप्रतीतेः; अन्यथा दहनादिस्वभावस्याग्नेः सदा दाहकत्वप्रकाशकत्वप्रसङ्गः, गच्छत्तृणस्पर्शसंवेदनस्य वा तदर्थनिरूपकत्वानुषङ्गः । अथात्र मनोव्यासङ्गोऽस्मरणकारणम्; अन्यत्र मिद्धादिकमित्यविशेषः । अस्ति चात्र स्वापलक्षणार्थनिरूपणम्-‘एतावत्कालं निरन्तरसुप्तोहमेतावत्कालं सान्तरम्' इत्यनुस्मरणप्रतीतेः । न च स्वापलक्षणार्थाननुभवेपि सुप्तोत्थानानन्तरं 'गाढोहं तदा सुप्तः' इत्यनुस्मरणं घटते; तस्यानुभूतवस्तुविषयत्वेनानुभवाविनाभावित्वात्, अन्यथा घटाद्यर्थाननुभवेपि विचारशक्तिसे रहित हो जाता है, जैसे चलते हुए व्यक्तिके तृण स्पर्श विषयक ज्ञान विचार शक्तिसे रहित होता है। ज्ञान स्व और परका प्रकाशक स्वभाव युक्त होने मात्रसे उनके निरूपणकी सामर्थ्य उसमें सदा बनी रहे सो बात नहीं है, कोई भी पदार्थ हो वह अभिभूत न हो तभी अपने कार्यको कर सकता है, अभिभूत दशामें नहीं । अभिभूत दशामें भी कार्यकारी माने तो दहनादि स्वभाव वाली अग्नि सदा ही [प्रतिबंध दशामें भी] दाहक प्रकाशक होनी चाहिये, चलते हुए पुरुषके तृण स्पर्शका ज्ञान उस अर्थका निरूपक होना चाहिये इत्यादि अतिप्रसंग दोष आता है । वैशेषिक-चलते हुए पुरुषका मन अन्य कार्यमें संलग्न होता है इसलिये तृण स्पर्शका निरूपण स्मरण आदि नहीं हो पाता । जैन-यही बात सुप्तदशाकी है निद्राके कारण ही ज्ञान स्वपर प्रकाशनमें असमर्थ हो जाता है । किञ्च, सुप्तदशामें भी निद्रित अर्थका प्रकाशन तो होता ही है, "इतनेकालतक निरंतर सोया हूँ और इतनेकालतक सांतर सोया हूँ" इसप्रकारका स्मृतिरूपज्ञान अन्यथा हो नहीं सकता। निद्रारूप अर्थका अनुभवन नहीं होता तो शयनकरके उठनेके बाद "उस उक्त मैं गाढ सो गया था" ऐसा स्मृतिज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि स्मृतिज्ञान अनुभूत विषयमें ही प्रवृत्त होता है उसका अनुभवके साथ अविनाभाव ही है । अन्यथा घट आदि पदार्थका अनुभव नहीं होनेपर भी उसका स्मरण होना शक्य होगा, फिर अनुभव की सिद्धि भी किस हेतुसे होगी ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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