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________________ मोक्षस्वरूप विचारः २३७ मात्रम्; यतस्तदा विज्ञानसद्भावेपि अतिनिद्रयाभिभूतत्वान्न जाग्रदवस्थातोऽविशेषः, मत्तमूच्छिताद्यवस्थायां मदिराद्युत्पादितमदवेदनाद्यभिभूत विज्ञानवत् । ननु कोयं मिद्धे नाभिभव: ? ज्ञानस्य नाशश्च त्; कथं तस्य सत्त्वम् ? तिरोभावश्च त्; न; स्वपरप्रकाशरूपज्ञानाभ्युपगमे तस्याप्यसम्भवात्; इत्यप्यचर्चिताभिधानम्; मरिणमन्त्रादिनाग्न्यादिप्रतिबन्धे शरावादिना प्रदीपादिप्रतिबन्धे च समानत्वात् । न हि तत्राप्यग्न्यादेशिः प्रतिबन्धः; प्रत्यक्षविरोधात् । नापि तिरोभावः; स्वपरप्रकाशस्वभावस्य स्फोटादिकार्यजननसमर्थस्य तिरोभावस्याप्यसम्भवात् । प्रतीत्यनतिक्रमेणात्र स्वरूपसामर्थ्य प्रतिबन्धाभ्युपगमोऽन्यत्रापि समानः । मिद्धादि ज्ञानका अभाव न होकर केवल अभिभव होता है, अभिभवके कारण जाग्रत दशासे इन दशाओंमें विषमता होती है, वैशेषिक सुप्तादि दशामें ज्ञानका प्रभाव मानते हैं वह सर्वथा असत् है। वैशेषिक-निद्रा द्वारा ज्ञानका अभिभव होना मायने क्या ? ज्ञानका नाश होना अभिभव है ऐसा माने तो सुप्तादि दशामें उसकी सत्ता माननेका सिद्धांत नष्ट होता है और उस अभिभवका अर्थ तिरोभाव होना करे तो स्वपरके प्रकाशक ऐसे जैनाभिमत ज्ञानका तिरोभाव होना भी असंभवसा दिखाई देता है ? जैन-यह कथन असम्यक् है, स्वपर के प्रकाशक ऐसे अग्निका मणिमंत्रादिसे प्रतिबंध होता है तथा शराव आदिसे स्वपर प्रकाशक दीपकका प्रतिबंध [तिरोभाव] होता है उसमें उपर्युक्त प्रश्न होगा कि स्वपरका प्रकाशन करने वाले इन पदार्थोंका तिरोभाव होना असंभव है, मंत्रादिसे अग्निका नाश होना प्रतिबंध है ऐसा कहे तो प्रत्यक्ष विरोध प्राता है, तथा उस मंत्रादिसे अग्निका तिरोभाव होनेको प्रतिबंध कहे तो स्वपर प्रकाशक एवं स्फोट आदि कार्य करने में समर्थ ऐसे अग्निका तिरोभाव होना असंभवसा दिखाई देता है। वैशेषिक-प्रतीतिके अनुसार वस्तु व्यवस्था होती है अतः मंत्रादि द्वारा अग्नि के स्वरूप सामर्थ्यका प्रतिबंध होना स्वीकार करते हैं ? __ जैन-प्रतीतिका यही क्रम ज्ञानके विषयमें सुघटित होता है निद्राद्वारा ज्ञानका केवल अभिभव होता है न कि अभाव. ऐसा उभयत्र समान न्याय स्वीकार करना होगा । सुप्तादिदशामें निद्रादि सामग्रीके वशसे ज्ञान बाह्याभ्यंतर पदार्थके विषयमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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