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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे ___ यच्चान्यत्-रागादिमतो विज्ञानान्न तद्रहितस्यास्योत्पत्तिरित्याधुक्तम्; तदप्यसाम्प्रतम्; रागादिरहितस्याखिलपदार्थविषय विज्ञानस्याशेषज्ञसाधनप्रस्तावे प्रतिपादितत्वात् । न च बोधाद्बोधरूपतेति प्रमाणमस्ति; इत्यप्ययुक्तम्; विलक्षणकारणाद्विलक्षणकार्यस्योत्पत्यभ्युपगमे अचेतनाच्छरीरादेश्चैतन्योत्पत्तिप्रसङ्गाचार्वाकमतानुषङ्गः । प्रसाधितश्च परलोकी प्रागित्यलमतिप्रसङ्गेन। __ यच्चाभ्यधायि-सुषुप्तावस्थायां विज्ञानसद्भावे जाग्रदवस्थातो न विशेषः स्यात्, तदप्यभिधान में एक ही समयमें अपने उत्तरक्षणवर्ती नीलक्षणको उत्पन्न करनेरूप कर्तृत्व धर्म रहता है और उसीमें उसीक्षण पीतक्षणको उत्पन्न नहीं करनेरूप अकर्तृत्व धर्म भी रहता है, ऐसे कर्तृत्व अकर्तृत्वरूप विरुद्ध धर्मों के रहते हुए भी उस नीलक्षणमें एकत्व माना है सो यह मान्यता उक्त प्रत्यभिज्ञानके समान विरोधको क्यों नहीं प्राप्त होगी ? अतः जिसप्रकार नीलक्षणमें अनेक धर्मोके रहते हुए भी एकत्व मानना अविरुद्ध है उसीप्रकार सुखक्षण आदि अनेक धर्मोके रहते हुए भी उन सब धर्मों में एक ही आत्मा है और उस आत्म एकत्वको जानने वाला प्रत्यभिज्ञान भी समीचीन है ऐसा स्वीकार करना ही होगा। बौद्धाभिमत मोक्षके लक्षणका निरसन करते हुए वैशेषिकने कहा था कि रागयुक्तज्ञानसे रागरहित विशुद्ध ज्ञानकी उत्पत्ति नहीं हो सकती इत्यादि वह सब अयुक्त है, सर्वज्ञ सिद्धि प्रकरणमें संपूर्ण पदार्थोंको विषय करनेवाला ज्ञान रागरहित ही होता है ऐसा हम जैन निर्विवाद प्रतिपादन कर आये हैं । ज्ञानसे ही ज्ञानपना आने की मान्यता प्रमाणभूत नहीं है ऐसा कथन भी अयुक्त है, सर्वथा विलक्षणभूत कारणसे अन्य विलक्षणकार्य की उत्पत्ति स्वीकार करे तो अचेतनभूत शरीर आदिसे चैतन्यकी उत्पत्ति मानने का प्रसंग आता है, और इसतरह विलक्षण कार्यकी उत्पत्ति स्वीकार वाले वैशेषिकका चार्वाकमतमें प्रवेश हो जाता है, हम जैनने इस चार्वाकमतका निरसन करते हुए पहले ही सिद्ध कर दिया है कि परलोकमें गमन वाला ज्ञानादिसे तादात्म्य संबंध ऐसा प्रात्मा अचेतनभूत चतुष्टयसे सर्वथा पृथक् है । अब यहांपर अधिक नहीं कहते । सुप्त दशामें ज्ञानका सद्भाव मानेंगे तो जाग्रत् दशासे उसकी विशेषता नहीं रहती ऐसा मंतव्य भी असत् है, सुप्तदशामें ज्ञानके रहते हुए भी अतिनिद्रा द्वारा वह अभिभूत हो जाता है इसलिये जाग्रत् दशासे उस दशामें समानता नहीं होती, जिसप्रकार मत्त मूच्छित आदि दशामें मदिरा आदिके द्वारा उत्पन्न किये गये मद वेदना आदिसे हमारा ज्ञान अभिभूत हो जाता है । अभिप्राय यह है कि सुप्त उन्मत्त आदि दशामें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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