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________________ मोक्षस्वरूपविचारः २३६ तत्रानुस्मरणसम्भवात्कुतस्तदनुभवोपि सिद्धयत् ? न च मत्तमूच्छिताद्यवस्थायामपि विज्ञानाभावाद् दृष्टान्तस्य साध्य विकलता; इत्याशङ्कनीयम्; तदवस्थातः प्रच्युतस्योत्तरकालं 'मया न किञ्चिदप्यनुभूतम्' इत्यनुभवाभावप्रसङ्गात्, स्मृतेरनुभवपूर्वकत्वात् । अतो येनानुभवेन सतात्मा निखिलानुभवविकलोऽनुभूयते तस्यामवस्थायां सोऽवश्याभ्युपगन्तव्यः । किञ्च, सुप्ताद्यवस्थायां विज्ञानाभावं स एवात्मा प्रतिपद्यते, पार्श्वस्थो वा ? स एव चेत्; तत एव ज्ञानात्, तदभावाद्वा, ज्ञानान्तराद्वा ? न तावत्तत एव; अस्यासत्त्वात्, 'तदेव नास्ति तत्र, तत एव चाभावगतिः' इत्यन्योन्यं विरोधात् । ज्ञानाभावात्तत्र तदभावपरिच्छित्तिः इत्ययुक्तम्; परिच्छेदस्य ज्ञानधर्मतयाऽभावेऽसम्भवात्, अन्यथा ज्ञानस्यैव 'अभावः' इति नामकृतं स्यात् । अथ ज्ञानान्तरात्तत्र तदभावगतिः; किं तत्कालभाविनः, जाग्रत्प्रबोधकालभाविनो वा ? प्रथम वैशेषिक-निद्रित अवस्थाके समान मत्त एवं मूच्छित आदि अवस्थामें भी विज्ञानका प्रभाव स्वीकार करते हैं अतः निद्रितदशा में ज्ञानका सद्भाव सिद्ध करनेके लिये मत्तदशाका दृष्टांत प्रयोग साध्य विकल है ? जैन-यह कथन असत् है, यदि मत्तादि अवस्थामें ज्ञानका प्रभाव माने तो उस अवस्थाके समाप्त होनेके अनंतर समयमें “मैंने उस समय कुछ भी अनुभव नहीं किया" इसतरह की स्मृति नहीं हो सकती, क्योंकि स्मृति ज्ञान अनुभव पूर्वक ही होता है । इसलिये जिस अनुभव द्वारा आत्मा निखिल अनुभवसे विकल रूप अनुभवमें आता है उस अवस्थामें [सुप्त मत्त आदिमें ] उस अनुभव ज्ञानका सद्भाव अवश्य स्वीकार करना चाहिये। तथा सुप्तादि दशामें ज्ञानका अभाव है ऐसा आप मानते हैं सो उस दशामें ज्ञानका अभाव था इस बातको कौन जानता है वही आत्मा या पासमें स्थित कोई अन्य व्यक्ति ? वही जानता है तो किस ज्ञानसे जानेगा । उसी ज्ञानसे या उसके प्रभाव से अथवा ज्ञानांतरसे ? उसी ज्ञानसे जानना अशक्य है, क्योंकि उसका तो सत्त्व ही नहीं है, निद्रित दशामें वहो ज्ञान नहीं है और उसी ज्ञानसे ज्ञानका अभाव जाना ये दोनों बातें परस्पर विरुद्ध हैं । उस ज्ञानाभावसे सुप्तदशाके ज्ञानका अभाव जाना जाता है ऐसा कथन भी हास्यास्पद है, जानना तो ज्ञानका धर्म है जब ज्ञानका अभाव है तो जानना भी असंभव है, यदि ज्ञानके अभावमें जानना होता है तो ज्ञानका ही "अभाव" ऐसा नामकरण हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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