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________________ १८८ प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रकृतीनामर्हन्नऽनुभागं घातयति न तु शुभानाम्, यतो गुणघातिनां दण्डो नाऽदोषाणाम् । यदि च प्रतिबद्धसामर्थ्यमप्यसातादिवेदनीयं स्वकार्यकारि स्यात्; तर्हि दण्डकवाटप्रतरादिविधानं भगवतो व्यर्थम् । तद्धि यदा न्यूनमायुर्वेदनीयादिकमधिक स्थितिकं भवति तदाऽनेनः कर्मणां समस्थित्यर्थं विधीयते । न चाधिक स्थितिकत्वेन फलदानसमर्थं कर्म उपायशतेनाप्यन्यथा कर्तुं शक्यमिति न कश्चिन्मुक्तः स्यात् । अथ तपोमाहात्म्याग्निर्जीर्णमधिक स्थितिकत्वेन फलदानासमर्थम् आयुःकर्मसमानं क्रियते; तथा वेद्यमपि क्रियतामविशेषात् । कर्म अपना कार्य करता रहता है । कोई पूछे कि अहंतके मात्र अशुभ कर्मका सामर्थ्य ही रुकता है शुभकर्मका नहीं यह किसप्रकार जाना जाय ? तो उस प्रश्नका उत्तर देते हैं कि अहंत भगवान अशुभकर्म प्रकृतियोंका ही अनुभाग नष्ट करते हैं शुभप्रकृतियोंका नहीं, क्योंकि "गुणोंका घात करनेवालेको दंड दिया जाता है, निर्दोषको दंड नहीं देते" इस न्यायके अनुसार अशुभकर्म गुणोंका घातक होनेके कारण उन्हीं का अनुभाग नष्ट किया जाता है, शुभका नहीं, क्योंकि शुभ गुणोंका घातक नहीं है । इसप्रकारका सामर्थ्य विहीन वेदनीय कर्म भी यदि स्वकार्यको करता ही है ऐसा माने तो दंड, कपाट, प्रतरादि समुद्घात क्रिया करना भगवानके व्यर्थ ठहरता है । यह समुद्घात क्रिया तो तब होती है जब अायुकर्म कम स्थितिवाला हो और नाम वेदनीय आदि कर्म अधिक स्थितिवाले हों, कर्मकी ऐसी स्थिति के रहनेपर समुद्घात क्रियासे उनको समान किया जाता है । जो अधिक स्थिति रूपसे फल देने में समर्थ है उसको सैंकडों उपायोंसे. भी अन्यथा नहीं कर सकता यदि ऐसा स्वीकार किया जाय तो कोई भी जीव कर्ममुक्त नहीं हो सकता। श्वेताम्बर-शुक्ल ध्यानरूपी तपो माहात्म्यसे कर्म निर्जीर्ण होता है वह अधिक स्थितिरूपसे फल देने में समर्थ नहीं रहता उसको आयु कर्मके समान स्थिति वाला किया जाता है। . दिगम्बर-यही बात वेदनीयकर्म में होती है, वह भी तपो माहात्म्यसे निर्जीर्ण हो जाने से फलदानमें असमर्थ होता है, और समुद्घात द्वारा उसको आयु कर्मके समान स्थिति वाला किया जाता है ऐसा मानना चाहिये । यहां तक के विवेचनसे अग्रिम मंतव्य भी खंडित हुया समझना चाहिये कि दिगम्बर वेदनीय कर्मको केवलीमें फल देने में असमर्थ मानते हैं तो उसकर्मका उनमें सत्व ही नहीं रहता ऐसा मानना चाहिये ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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