SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 232
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८७ कवलाहारविचारः किञ्च, कर्मणां यद्यदयो निरपेक्षः कार्यमुत्पादयति; तर्हि त्रिवेदानां कषायाणां वा प्रमत्तादिषूदयोस्तीति मैथुनं भ्र कुट्यादिकं च स्यात् । ततश्च मनसः संक्षोभात्कथं शुक्लध्यानाप्तिः क्षपकश्रेण्यारोहणं वा ? तदभावाच्च कथं कर्मक्षपणादि घटेत? नन्वेवं नामायु दयोपि तत्र स्वकार्यकारी न स्यात्; इत्यप्यसङ्गतम्, शुभप्रकृतीनां तत्राप्रति बद्धत्वेन स्वकार्यकारित्वसम्भवात् । यथा हि बलवता राज्ञा स्वमार्गानुसारिणा लब्धे देशे दुष्टा जीवन्तोपि न स्वदुष्टाचरणस्य विधातारःसुजनास्त्वप्रतिहततया स्वकार्यस्य विधातारस्तथा प्रकृतमपि । कथं पुनरशुभप्रकृतीनामेवाहंति प्रतिबद्ध सामर्थ्यम् न पुनः शुभप्रकृतीनामिति चेत्; उच्यते-अशुभ दिगम्बर-बिलकुल ठीक है, यही बात वेदनीय कर्मके विषयमें है अनंतसूख, अनंतवीर्य गुण युक्त होने के कारण तथा बाधा रहित होनेके कारण असाताकर्मका उदय होते हुए भी भगवान आहार नहीं करते हैं, ऐसा मानना ही चाहिये । आपने कहा कि भगवान परम कारुणिक हैं किन्तु करुणा तो मोहनीयकर्मका कार्य है, भगवानका मोहनीयकर्म सर्वथा नष्ट हो चुका है अतः वे परमकारुणिक नहीं कहला सकते । आप यदि कर्मों के उदयको विना अन्यकी अपेक्षा लिये कार्य करने में समर्थ मानते हैं तो स्त्रीवेद, पुरुषवेद तथा नपुसकवेद एवं कषायोंका उदय प्रमत्तादि गुणस्थानोंमें रहता है अतः उन कर्मोंका कार्य मैथुन सेवन भ्र कुटि चढाना आदि भी उन गुणस्थानवर्ती साधुअोंके मानना होगा? फिर तो मनमें क्षोभको एवं विकारको प्राप्त उन साधुओंके शुक्ल ध्यानादि कैसे हो सकते हैं ? अथवा क्षपक श्रेणिमें प्रारोहण कैसे होगा? और इनके अभाव कर्मका क्षय होना भी कैसे घटित होगा। श्वेताम्बर-वेदनीय कर्मका उदय होते हुए भी वह यदि कार्यकारी नहीं होता तो नाम कर्मका उदय भी स्वकार्यकारी नहीं होना चाहिये । दिगम्बर-ऐसी बात है कि जो शुभकर्मकी प्रकृतियां हैं उनका उदय विना - रुकावटके भगवानमें कार्य करता रहता है, इस विषयमें दृष्टांत है कि दुष्टोंका निग्रह और शिष्ट पुरुषों पर अनुग्रह करने वाले बलवान राजा के देशमें दुष्ट जीव रहते हुए भी अपना दुष्टपूर्ण कार्य करने में असमर्थ हुआ करते हैं और शिष्ट-सज्जन अपने परोपकार आदि कार्यको विना रुकावट करते हैं । इसीप्रकार केवली भगवानके शुभ और अशुभ दोनों कर्म रहते हुए भी अशुभ तो स्वकार्यको नहीं कर सकता और शुभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy