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________________ कवलाहारविचार: भुक्तवता च कण्ठोष्ठप्रमाणतस्तृप्ते नाऽरुचितस्त्यज्यते । तथा चाभिलाषाऽरुचिभ्यामाहारे प्रवृत्तिनिवृत्तिमत्त्वात्कथं वीतरागत्वम् ? तदभावान्नाप्तता । प्रथाभिलाषाद्यभावेप्याहारं गृह्णात्यसौ तथाभूतातिशयस्वात्, ननु चाहाराभावलक्षणोप्यतिशयोऽस्याम्युपगन्तव्योऽनन्तगुणत्वाद्गगनगमनाद्यतिशयवत् । अथाहाराभावे दे स्थितिरेवास्य न स्यात्; तथाहि - भगवतो देहस्थितिः आहारपूर्विका देहस्थितित्वादस्मदादिदेहस्थितिवत् । नन्वनेनानुमानेनास्याहारमात्रम्, कवलाहारो वा साध्येत ? प्रथमपक्षे सिद्धसाध्यता, ‘आसयोगकेवलिनो जीवा श्रहारिणः' इत्यभ्युपगमात्, तत्र च कवलाहाराभावेप्यन्यस्य कर्मनोकर्मादानलक्षणस्याविरोधात् । षड्विधो ह्याहारः "गोकम्म कम्महारो कवलाहारो य लेप्पमाहारो । मरणोवि कमसो प्रहारो छव्विहो यो ।' [ १७६ ] भोजन करता है अतः वीतरागी नहीं है । आपके मतमें केवली भगवान कवलाहार करने वाले माने हैं अतः वे वीतरागी सिद्ध नहीं होते । तथा कवल आहारको अभिलाषा और स्मरणके बिना ग्रहण नहीं कर सकते, अभिलाषा और स्मरण पूर्वक ही भोजन होता है, एवं जब भोजन हो जाता है तब कंठौष्ठ तक पूर्ण कुक्षि हुआ पुरुष प्ररुचिसे उस भोजनको छोड़ देता है । इसप्रकार अभिलाषासे ग्राहारका ग्रहण और अरुचिसे त्याग हुआ करता है, फिर उस आहारको ग्रहण करने वालेके वीतराग भाव कैसे हो सकते हैं ? अर्थात् नहीं हो सकते, वीतरागत्वके अभावमें उस पुरुष में [ केवली में ] प्राप्तपना भी संभव नहीं है । शंका- केवली भगवानके अभिलाषा आदि विकार नहीं होते तो भी वे आहार ग्रहण करते हैं, उनमें ऐसा अतिशय ही रहता है । समाधान- यदि प्रतिशयपने की बात है तो आहार ग्रहण नहीं करना रूप अतिशय ही माना जाय ? क्योंकि उनमें तो अनंतगुण विद्यमान हैं, जैसे गगनगमन आदि अतिशय स्वीकार करते हैं वैसे प्रहार नहीं करना यह भी एक अतिशय है । शंका-आहारके ग्रभावमें अरहंतके देहस्थिति नहीं रह सकती अनुमानसे सिद्ध करते हैं-अरहंतके शरीरकी स्थिति आहार द्वारा होती है, क्योंकि वह शरीर स्थिति है जैसे हम मनुष्योंकी शरीरकी स्थिति आहार द्वारा हुआ करती है ? समाधान - ठीक है, किन्तु इस अनुमान द्वारा सामान्य आहार सिद्ध करना है या कवलाहार ? सामान्य आहार कहो तो सिद्ध साध्यता है, क्योंकि हम भी प्रथम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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