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________________ १८० प्रमेयकमलमार्तण्डे इत्यभिधानात् । न खलु कवलाहारेणैवाहारित्वं जीवानाम्; एकेन्द्रियाण्डजत्रिदशानामभुञ्जानतिर्यग्मनुष्याणां चानाहारित्वप्रसङ्गात् । न चैवम् “विग्गहगइमावण्णा केवलिणो समुहदो अजोगी य । सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारिणो जीवा ॥" [ जीवकाण्ड गा० ६६५, श्रावकप्रज्ञ० गा०६८] इत्यभिधानात् । द्वितीयपक्षे तु त्रिदशादिभिर्व्यभिचारः; तेषां कवलाहाराभावेपि देह स्थितिसम्भवात् । अथ 'ग्रौदारिकशरीर स्थितित्वात्' इति विशेष्योच्यते । तथाहि-या या औदारिकशरीर गुणस्थानसे लेकर तेरहवें गुणस्थानतकके जीवोंको आहारी मानते हैं, यह बात अवश्य है कि तेरहवें गुणस्थानवालेके [ केवलीके ] कवलाहार तो नहीं है किन्तु कर्म नोकर्म आहार है। आहारके छह भेद हैं कर्माहार, नोकर्माहार, कवलाहार, लेपाहार, अोज आहार, मानसिकाहार । कवलाहार करनेसे ही जीव पाहारी होवे सो बात नहीं है, यदि ऐसा एकांत मानेंगे तो एकेन्द्रिय जीव, अंडे में स्थित जीव, देव और उपवास आदिके कारण भोजन नहीं करने वाले मनुष्य तिर्यंच इन सबके अनाहारी बन जानेका प्रसंग आता है, परन्तु ये जीव अनाहारी नहीं हैं । अनाहारी जीव तो ये हैं -विग्रहगतिमें स्थित, कार्माण काययोगमें समुद्घात केवली, अयोगी जिन और सिद्ध । इनसे अवशेष जीव आहारी है, इसप्रकार सिद्धांतमें कथन है । देहस्थितिके लिये जो आहार होता है वह कवलाहार ही है ऐसा दूसरा पक्ष माने तो हेतु देवादिके साथ अनैकान्तिक होता है, क्योंकि देवोंके कवलाहार नहीं होते हुए भी शरीरकी स्थिति बनी रहती है । शंका-प्रौदारिक शरीर की स्थिति आहारके बिना नहीं होती ऐसा विशेष्य जोड़कर हेतुका प्रयोग करनेसे दोष नहीं आयेगा, जो जो औदारिक शरीरको स्थिति है वह वह कवलाहार पूर्वक होती है, जैसे हम लोगोंके शरीरकी स्थिति कवलाहारसे होती है, भगवानके भी प्रौदारिक शरीरकी स्थिति है अतः वह कवलाहार पूर्वक होनी चाहिये इसप्रकार विशेष्य जोड़कर हेतुका प्रयोग करनेसे देवोंके शरीर स्थितिके साथ व्यभिचार नहीं आता है। समाधान-यह कथन असार है, भगवानके शरीरकी स्थिति परम औदारिक है वह हम जैसे लोगोंके औदारिक शरीर स्थितिसे विलक्षण हुआ करती है परम प्रौदा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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