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________________ १७८ प्रमेयकमलमार्तण्डे सुखादेः कादाचित्कतया विषयेभ्य एवोत्पत्तिसम्भवात् । भगवत्सुखादेश्च तत्सम्भवेऽनन्तताव्याघातः । तथा हि-क्षुत्क्षामकुक्षिनिश्शक्तिकश्चासौ यदा कवलाहारग्रहणे प्रवृत्तस्तदैव तदीयसुखवीर्ययोर्नष्टत्वात्कुतोऽनन्तता ? वीतरागद्वेषत्वाच्चास्य तद्ग्रहणप्रयासायोगः । प्रयोग:-केवली न भुक्ते रागद्वषाभावानन्तवीर्यसद्भावान्यथानुपपत्तेः । ननु सममित्रशत्रूणां साधूनां भोजनादिकं कुर्वतामपि वीतरागद्वेषत्वसम्भवादनकान्तिको हेतुः; इत्यप्यसाम्प्रतम्; मोहनीयकर्मणः सद्भावे भोजनादिकं कुर्वतां प्रमत्तगुणस्थानप्रवृत्तीनां साधूनां परमार्थतो वीतरागत्वासम्भवात् । तन्नानैकान्तिकोयं हेतुः । नापि विरुद्धो विपक्षे वृत्तेरभावात् । कवलाहारित्वे चास्य सरागत्वप्रसङ्गः । प्रयोग:-यो यः कवलं भुक्त स स न वीतरागः यथा - रथ्यापुरुषः, भुक्त च कवलं भवन्मतः केवलीति। कवलाहारो हि स्मरणाभिलाषाभ्यां भुज्यते, दिगंबर जैन-यह कथन अयुक्त है, हम जैसे जीवोंको तो बाह्य पंचेन्द्रियोंके विषयों द्वारा सुख होता है, वह भी कदाचित् होता है, सतत रूपसे नहीं, ऐसा सुख अरहंतके माने तो वह अनंत नहीं रहा, क्षुधासे पीड़ित शक्तिहीन ऐसा यह भगवान जब कवलाहार ग्रहण करने में प्रवृत्त होगा तब उसके सुख और वीर्य नष्ट ही हो जाता है तो सुखादिमें अनंतता कहां रही ? तथा अरहंत भगवान रागद्वेषसे रहित होते हैं अतः कवलाहारको ग्रहण करनेका प्रयास ही नहीं कर सकते । अनुमानसे सिद्ध होता है कि केवली भगवान आहार नहीं करते, क्योंकि उनके रागद्वषका अभाव है एवं अनंतवीर्य के सद्भावकी अन्यथानुपपत्ति है । श्वेतांबर-जो शत्र और मित्रमें समान भाव रखते हैं ऐसे वीतरागी साधुओं के भोजन करते हुए भी वीतरागता रहती है अत: उपर्युक्त हेतु अनैकान्तिक है । दिगम्बर-यह कथन असत् है, जिनके मोहनीय कर्म विद्यमान है ऐसे प्रमत्तसंयत नामा गुणस्थानमें वर्तमान साधुओंके परमार्थभूत वीतरागता नहीं होती है, अतः वीतरागत्वकी अन्यथानुपपत्ति नामा हेतु अनैकान्तिक दोष युक्त नहीं है, तथा विरुद्ध दोष युक्त भी नहीं है, क्योंकि विपक्षमें [अन्य सामान्य कवलाहार करनेवाले जीवोंमें] नहीं जाता है। केवलीके कवलाहार मानते हैं तो उनके सरागी बननेका प्रसंग आता है-जो जो पुरुष कवलवाला आहार करता है वह वह वीतरागी नहीं होता, जैसे रथ्या पुरुष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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