SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 222
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Saaaaa aaaaam कवलाहारविचारः MEERASEASESSESESERREEEEEEEEET ये त्वात्मनो जीवन्मुक्तौ कवलाहारमिच्छन्ति तेषां तत्रास्यानन्तचतुष्टयस्वभावाभावोऽनन्तसुखविरहात् । तद्विरहश्च बुभुक्षाप्रभवपीडाक्रान्तत्वात् । तत्पीडाप्रतीकारार्थो हि निखिलजनानां कवलाहारग्रहणप्रयासः प्रसिद्धः । ननु भोजनादेः सुखाद्यनुकूलत्वात्कथं भगवतोऽतोऽनन्तसुखाद्यभावः ? दृश्यते ह्यस्मदादौ क्षुत्पीडिते निश्शक्तिके च भोजनसद्भावे सुखं वीर्यं चोत्पद्यमानम्; इत्यप्ययुक्तम्; अस्मदादि जीवन मुक्ति और परम मुक्ति इसप्रकार परमात्माओंकी दोनों अवस्थाओंमें अनंतचतुष्टय विद्यमान रहते हैं, जीवन मुक्तको अरहंत भगवान कहते हैं और परम मुक्तको सिद्ध भगवान कहते हैं । श्वेतांबर जैन जीवन्मुक्त अरहंतके कवलाहारका सद्भाव मानते हैं जैसे सामान्य संसारीजीव कवल [ग्रासवाला आहार करते हैं वैसे अरहंत भगवान भी करते हैं ऐसा श्वेतांबर मानते हैं, इस मान्यता में यह बाधा है कि अरहंतके अनंतचतुष्टय गुणोंमेंसे अनंतसुख नामा गुणका अभाव होनेका प्रसंग आता है, जब चारोंमेंसे एकका अभाव स्वीकार करेंगे तो शेष तोनोंका भी अभाव होवेगा, क्योंकि इन चारोंका परस्परमें अविनाभाव है। केवलीके कवलाहार माननेसे अनंतसुखका अभाव कैसे हो जाता है ऐसा प्रश्न होनेपर उसका उत्तर यह है कि वे क्षुधा वेदनासे पीड़ित होकर भोजन करते हैं, अतः अरहंत भोजन करते हैं तो उनको पीड़ा होती है ऐसा स्वतः सिद्ध होता है । क्षुधाकी पीड़ा दूर करनेके लिये ही सभी जीव कवलाहार ग्रहण करते हैं यह सुप्रसिद्ध ही है। __श्वेतांबर जैन-भोजनादिके द्वारा तो सुख होता है, भोजन सुखके अनुकूल है न कि प्रतिकूल ! फिर उस भोजनका सद्भाव माननेसे अरहंतके अनंत सुखादिका अभाव कैसे हो सकता है ? देखा जाता है कि हम जैसे व्यक्ति भूखसे पीड़ित होते हैं शक्ति हीन हो जाते हैं तो भोजनके मिलने पर सुखी और शक्तिमान हो जाते हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy