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________________ प्रकृतिकत्तत्ववादः साहित्यं नामानयोरन्योन्यं सहकारित्वम् । तच्चान्योन्यातिशयाधानाद्वा स्यात्, एकार्थकारित्वाद्वा ? न तावदाद्यकल्पना युक्ता; नित्यत्वेनानयोविकाराभावात् । नापि द्वितीयकल्पना युक्ता; कार्याणां यौगपद्यप्रसङ्गात् । अप्रतिहतसामर्थ्यस्येश्वरप्रधानाख्य कारणस्य सदा सन्निहितत्वेनाविकलकारणत्वात्तेषाम् । तथाहि-यद्यदाऽविकलकारणं तत्तदा भवत्येव यथाऽन्त्यक्षणप्राप्तायाः सामग्रीतोऽकुरः, अविकलकारणं चाशेष कार्यमिति। __ननु यद्यपि का रणद्वयमेतन्नित्यं सन्निहितं तथापि क्रमेणैवामी कार्यभेदाः प्रतिष्यन्ते । महेश्वरस्य हि प्रधानगताः सत्त्वादयस्त्रयो गुणा: सहकारिणः, तेषां च क्रमवृत्तित्वात्कार्याणामपि क्रमः । तथाहि-यदोद्भ तवृत्तिना रजसा युक्तो भवत्यसौ तदा सर्गहेतुः प्रजानां भवति प्रसवकार्यत्वाद्रजसः, यदा तु सत्त्वमुद्भूतवृत्ति संश्रयते तदा लोकानां स्थितिकारणं भवति सत्त्वस्य स्थितिहेतुत्वात्, यदा तमसोद्भूतशक्तिना समायुक्तो भवति तदा प्रलयं सर्वजगतः करोति तमसः प्रलयहेतुत्वात् । तदुक्तम् अतः उनमें अतिशयरूप विकृति होना असंभव है । दूसरा पक्ष भी अयुक्त है, इस तरह मानने पर सभी कार्य युगपत् उत्पन्न हो जानेका प्रसंग आता है, जिनकी सामर्थ्य अप्रतिहत हैं ऐसे प्रधान और ईश्वर रूप कारणोंके सदा विद्यमान रहनेसे वे कार्य अविकल कारण वाले सिद्ध ही हो जाते हैं। अनुमान सिद्ध बात है कि जब जिसका अविकल [संपूर्ण] कारण मौजुद रहता है तब उसकी उत्पत्ति हो ही जाती है, जैसे अन्त्यक्षणको प्राप्त सामग्रीसे अंकुर उत्पन्न हो जाता है, जगत्के अशेषकार्य भी अविकल कारण सहित हैं अतः उनकी उत्पत्ति भी युगपत् हो जानी चाहिये । ___सांख्य-यद्यपि दोनों कारण नित्य एवं सन्निहित [निकटवर्ती] हैं तथापि नाना कार्यभेद तो क्रम से ही सम्पन्न होते हैं, आगे इसीका खुलासा करते हैं-महेश्वर के सहकारी कारण प्रधानमें होने वाले सत्व आदि तीन गुण हैं, ये गुण क्रमसे होने वाले हैं अतः इन गुणोंकी सहायतासे होने वाले कार्य भी क्रमिक सिद्ध होते हैं । आगे इसीका विवरण किया जाता है-जब यह ईश्वर आविर्भूत रजोगुणसे युक्त होता है तब वह प्रजाके उत्पत्तिका कारण होता है, क्योंकि रजोगुणका कार्य उत्पत्ति कराना है । और जब वह ईश्वर सत्वगुणका आश्रय लेता है तब लोकोंकी स्थितिका कारण होता हैं, क्योंकि सत्वगुण स्थितिका हेतु है, तथा जब वही ईश्वर तमोगुणसे युक्त होता है तब संपूर्ण जगतका प्रलय कर डालता है, क्योंकि तमोगुण प्रलयका हेतु माना गया है। यही कथन कादंबरी प्रथमें पाया जाता है कि जब ईश्वर रजोगुणसे युक्त होता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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