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________________ १७२ प्रमेयकमलमार्तण्डे "रजोजुषे जन्मनि सत्त्ववृत्तये स्थितौ प्रजानां प्रलये तमःस्पृशे । अजाय सर्गस्थितिनाशहेतवे त्रयीमयाय त्रिगुणात्मने नमः ॥१॥". [कादम्बरी पृ० १ ] इत्यप्यसाम्प्रतम्; यतः प्रकृतीश्वरयोः सर्गस्थितिप्रलयानां मध्येऽन्यतमस्य क्रियाकाले तदपरकार्यद्वयोत्पादने सामर्थ्यमस्ति, न वा ? यद्यस्ति; तहि सृष्टिकाले पि स्थितिप्रलयप्रसङ्गोऽविकलकारणस्वादुत्पादवत् । एवं स्थितिकालेप्युत्पाद विनाशयोः, विनाशकाले च स्थित्युत्पादयोः प्रसङ्गः, न चैतद्य क्तम् । न खलु परस्परपरिहारेणाव स्थितानामुत्पादादिधर्माणामेकत्र धर्मिण्येकदा सद्भावो युक्तः। अथ नास्ति सामर्थ्यम्; तदैकमेव स्थित्यादिनां मध्ये कार्य सदा स्यात् यदुत्पादने तयोः सामर्थ्यमस्ति, तब प्रजाके उत्पत्तिका हेतु होता है, सत्वगुण युक्त होनेपर स्थितिका एवं तमोगुण युक्त होनेपर प्रलयका हेतु होता है, इसप्रकार उत्पत्ति स्थिति और नाशका हेतु, त्रिवेदमूत्ति, त्रिगुणात्मक अज नाम संयुक्त ईश्वरके लिये नमन हो ।।१।। [कादंबरी पृष्ठ १] __ जैन-यह संपूर्ण कथन युक्तिशून्य है, उत्पत्ति स्थिति एवं प्रलय इन तीनोंमें से किसी एक क्रियाका संपादन करते समय प्रधान और ईश्वरमें अन्य दो कार्योंको संपन्न करनेका सामर्थ्य है अथवा नहीं ? यदि है तो जगतकी उत्पत्तिके समयमें ही स्थिति और नाश भी हो जाना चाहिये ? क्योंकि उत्पत्तिके समान उनका भी अविकल कारण मौजूद है । इसीप्रकार स्थितिकालमें उत्पत्ति और विनाशका तथा नाशकाल में स्थिति और उत्पत्ति हो जाने का प्रसंग प्राप्त होता है, किन्तु यह सब युक्त नहीं है, क्योंकि उत्पत्ति आदि धर्म परस्परका परिहार करके रहने वाले धर्म हैं, इनका एक धर्मी में एक कालमें सद्भाव पाया जाना असंभव है । यदि यह माना जाय कि ईश्वरादिमें उत्पत्ति आदिकी क्रिया करते समय अन्य दो कार्योंके संपादनकी सामर्थ्य नहीं होती तो उन स्थिति आदि कार्यों में से कोई एक ही कार्य सदा ही होता रहेगा, जिसका कि सामर्थ्य उन ईश्वरादि दोनों कारणोंमें मौजूद है, शेष दो कार्य तो कभी भी नहीं हो सकेंगे, क्योंकि उनके उत्पादनकी सामर्थ्यका सदा ही अभाव है । तथा प्रधान और ईश्वर दोनों ही अविकारी पदार्थ हैं इनमें नयी सामर्थ्य उत्पन्न होना तो अशक्य अन्यथा इनकी नित्य एक स्वभावताका व्याघात हो जानेका प्रसंग प्राप्त होगा। सांख्य-यद्यपि ईश्वर और प्रधान नित्य एक स्वभाव वाले हैं तो भी प्रधानमें सत्व आदि गुणोंमेंसे जो भी आविर्भूत वृत्तिक होता है वही कारणपने को प्राप्त होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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