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________________ १७० प्रमेयकमलमार्तण्डे त्वात् । न ह्यचेतनोऽधिष्ठायकमन्तरेण कार्यमारभमाणो दृष्टः । न चान्यात्माऽधिष्ठायको युक्तः; सृष्टिकाले तस्याज्ञत्वात् । तथा हि-बुद्ध्यध्यवसितमेवार्थं पुरुषश्च तयते । बुद्धिसंसर्गाच्च पूर्वमसावज्ञ एव, न जात किञ्चिदर्थं विजानाति न चाज्ञातमथं कश्चित्कत्तं शक्तः । अतो नासौ कर्ता। तस्माद स्मादीश्वर एव प्रधानापेक्षः कार्यभेदानां कर्ता, न केवलः । न खलु देवदत्तादिः केवलः पुत्रम्, कुम्भकारो वा घट जनयति' इति; तदपि प्रतिव्यूढम्; प्रत्येकं तयोः कर्तृत्वस्यासम्भवे सहितयोरप्यसम्भवात्, अन्यथा प्रत्येकपक्षनिक्षिप्तदोषानुषङ्गः । अथोच्यते-यदि नाम प्रत्येकं तयोः कर्तृत्वासम्भवस्तथापि सहितयोः कथं तदभावः ? न हि केवलानां चक्षुरादीनां रूपादि ज्ञानोत्पत्तिसामर्थ्याभावे सहितानामप्यसौ युक्तः; तदप्युक्तिमात्रम्; यतः पदार्थको नहीं जानता । यह बात निश्चित है कि अज्ञात पदार्थको करनेके लिये कोई भी पुरुष समर्थ नहीं हो सकता, अतः सामान्य आत्मा कार्योंका कर्ता सिद्ध नहीं होता है, इसप्रकार यह निश्चय हुआ कि प्रधानकी अपेक्षा रखते हुए ईश्वर ही कार्यभेदोंका कर्ता है । अकेला अात्मा नहीं । लोक व्यवहार में भी देखते हैं कि अकेले देवदत्तादि पुरुष पुत्रको उत्पन्न कर देते हो या अकेला कुम्हार घटको बना देता हो ऐसा नहीं होता । सो यह सेश्वर सांख्यका कथन असत् है, जब प्रधान और ईश्वर इनसे प्रत्येक में सृष्टिका कर्तृत्व संभव नहीं है दोनों सम्मिलित अवस्थामें भी उस कार्यको नहीं कर सकते, यदि सम्मिलित अवस्थामें कर्तृत्व संभव है ऐसा माने तो प्रत्येकके पक्षमें दिये गये अखिल दोष आ जायेंगे। सांख्य-प्रधान और ईश्वर अकेले रहकर कार्यको नहीं कर सकते तो न सही किन्तु दोनों सम्मिलित होकर क्यों नहीं कर सकेंगे ? चक्षु आदि इन्द्रियां अकेली रहकर रूपादि विषयोंमें ज्ञानको नहीं कर सकती तो [कमजोर होनेके कारण] क्या उनके सहायक प्रकाश नेत्रांजनादिके सम्मिलित अवस्थामें भी नहीं करती ? अर्थात् अवश्य कर सकती है, इसीप्रकार अकेले प्रधान और ईश्वर भले ही सृष्टि कार्यको न करें किन्तु दोनों मिलकर तो कर सकते हैं ? जैन-यह कथन अयुक्त है, सम्मिलित होकर करना, सहित होकर करना इस वाक्यका अर्थ होता है एक दूसरेका सहकारी बनना, अब बताइये कि प्रधान और ईश्वरमें किसप्रकारका सहकारीपना है परस्परमें अतिशयत्व लाना या एकमेक होकर कार्य करना ? प्रथमपक्ष श्रेयस्कर नहीं है क्योंकि प्रधान और ईश्वर दोनों ही नित्य हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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