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________________ प्रकृतिकत्तत्ववादः १४६ दीनामनुपलब्धेः । यथा च पितरि जीवति पुत्रो न स्वतन्त्रो भवति तथा व्यक्त सर्वदा कारणायत्तत्वात्परतन्त्रम् । न त्वेवमव्यक्त तस्य नित्यमकारणाधीनत्वात्। ननु प्रधानात्मनि कुतो महदादीनां सद्भावसिद्धिर्यतः प्रागुत्पत्तः सदेव कार्यमिति चेत्; "असदकरणादुपादानग्रहणात्सर्वसम्भवाभावात् । शक्तस्य शक्यकरणात्कारणभावाच्च सत्कार्यम् ॥" [सांख्यका० ६] इति हेतुपञ्चकात् । यदि हि कारणात्मनि प्रागुत्पत्त: कार्यं नाभविष्यत्तदा तन्न केनचिदकरिष्यत । यदसत्तन्न केनचित्क्रियते यथा गगनाम्भोरुहम्, असच्च प्रागुत्पत्तेः परमते कार्यमिति । क्रियते च तिलादिभिस्तैलादिकार्यम्, तस्मात्तच्छक्तितः प्रागपि सत्, व्यक्तिरूपेण तु कापिलैरपि प्राक् सत्त्वस्यानिष्टत्वात् । नहीं होता उसप्रकार व्यक्त सर्वदा कारणाधीन होनेसे परतंत्र रहता है । अव्यक्त ऐसा नहीं है, क्योंकि वह नित्य होनेसे कारणाधीन नहीं है । ___ शंका-प्रधान स्वरूप में महदादिके सद्भावकी सिद्धि किस हेतु से होती है जिससे उत्पत्ति के पहले कार्य सद् रूप ही कहा जाता है ? समाधान-पांच हेतु से सद्रूपकार्यकी सिद्धि होती है, अर्थात् असत् की उत्पत्ति नहीं की जा सकती है, प्रतिनियत कार्यके लिये प्रतिनियत कारण को ग्रहण किया जाता है, सभी कारणोंसे सभी कार्योंकी उत्पत्ति नहीं देखी जाती है, समर्थ कारण ही शक्य कार्यको करता है अशक्यको नहीं, और पदार्थों में कार्यकारणभाव देखा जाता है । यदि उत्पत्तिके पहले कारणमें कार्य नहीं होगा तो वह किसी के द्वारा किया नहीं जा सकता । जो असत् होता है वह किसीके द्वारा नहीं किया जाता जैसे आकाश का पुष्प, जैनादिप्रवादीके यहां उत्पत्तिके पहले कार्यको असत् माना है अतः वह किसीके द्वारा नहीं किया जा सकता। किन्तु तिल आदिके द्वारा तैलादिकार्य किया जाता है अतः वह शक्तिसे पहले भी सद्रूप रहता है, हां व्यक्तिरूपसे पहले उसका सत्व मानना तो हम सांख्यको भी अनिष्ट है । यदि कार्य असत् होता तो पुरुषों द्वारा प्रतिनियत उपादानका ग्रहण नहीं होता । क्योंकि जिसप्रकार शालि आदि का असत्व शालि आदि के बीजादि में है उस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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