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________________ १४८ प्रमेयकमलमार्तण्डे व्यक्तमेव हि कारणवत्; तथाहि-प्रधानेन हेतुमती बुद्धिः, बुद्ध्या चाहङ्कारः, अहङ्कारेण पञ्च तन्मात्राण्येकादश चेन्द्रियाणि, भूतानि तन्मात्रैः। न त्वेवमव्यक्तम्-तस्य कुतश्चिदनुत्पत्त: । तथा व्यक्तमनित्यम् उत्पत्तिधर्मकत्वात्, नाव्यक्तम् तस्यानुत्पत्तिमत्त्वात् । यथा च प्रधानपुरुषौ दिवि चान्तरिक्षेत्र सर्वत्र व्यापितया वर्तेते न तथा व्यक्तम् । यथा च संसारकाले त्रयोदश विधेन बुद्ध्यऽहङ्कारेन्द्रियलक्षणेन संयुक्त सूक्ष्मशरीरादिकं व्यक्त संसरति, नैवमव्यक्त तस्य विभुत्वेन सक्रियत्वायोगात् । बुद्ध्यहङ्कारादिभेदेन चानेकविधं व्यक्तम्, नाव्यक्तम् तस्यैकस्यैव सतो लोकत्रयकारणत्वात् । आश्रितं च व्यक्तम्, यद्यस्मादुत्पद्यते तस्य तदाश्रितत्वात् । न त्वेवमव्यक्तम् तस्याकार्यत्वात् । लिङ्ग च 'लयं गच्छति' इति कृत्वा, प्रलयकाले हि भूतानि तन्मात्रेषु लीयन्ते, तन्मात्राणीन्द्रियाणि चाहङ्कारे, अहङ्कारो बुद्धौ, बुद्धिश्च प्रधाने । न चाव्यक्त क्वचिदपि लयं गच्छतीति तस्याविद्यमानकारणत्वात् । सावयवं च व्यक्तम् शब्दस्पर्शरूपरसगन्धात्मकैरवयवैयुंक्तत्वात् । न त्वेवमव्यक्तम् प्रधानात्मनि शब्दा तन्मात्रायें और ग्यारह इन्द्रियां एवं उन्हीं तन्मात्राओंसे पंचभूत होते हैं, अतः उत्तरोत्तर हेतुमान होनेसे प्रधानको हेतुमान कहते हैं । अव्यक्त प्रधान इस तरह का नहीं है, क्योंकि उसकी किसी से उत्पत्ति नहीं हुई है । तथा उत्पत्ति धर्मवाला होनेसे व्यक्त प्रधान तो अनित्य है और अव्यक्त प्रधान उत्पत्तिमान नहीं होनेसे नित्य है । तथा जिसप्रकार प्रधान और पुरुष स्वर्गमें आकाशमें, यहां पर सर्वत्र व्याप्त होकर रहते हैं उस प्रकार व्यक्त नहीं रहता । जिसप्रकार संसार कालमें बुद्धि अहंकार एवं एकादश इन्द्रियां इन तेरह प्रकार के लक्षण से संयुक्त सूक्ष्म शरीरादि को व्यक्त प्रधान प्राप्त होता है उसप्रकार अव्यक्त प्राप्त नहीं होता, क्योंकि वह व्यापक होनेसे सक्रिय नहीं हो सकता । बुद्धि अहंकारादि के भेद से व्यक्त अनेक विध है, अव्यक्त ऐसा नहीं है वह एक ही लोकत्रयका कारण है । व्यक्त प्राश्रित रहता है, क्योंकि जो जिससे उत्पन्न होता है वह उसके आश्रित रहता ही है । अव्यक्त अकार्य होने से ऐसा नहीं है । व्यक्त लिंग भी कहलाता है, "लयं गच्छति इति लिंग' अर्थात् प्रलय कालमें पंचभूत तन्मात्राोंमें विलीन हो जाते हैं, तन्मात्रायें और इन्द्रियां अहंकारमें विलीन होते हैं, अहंकार बुद्धि में और बुद्धि प्रधानमें विलीन होती हैं अतः व्यक्त को लिंग कहते हैं। किन्तु अव्यक्त किसी में भी विलीन नहीं होता क्योंकि उसका कारण अविद्यमान हैं । व्यक्त अवयव सहित होता है, क्योंकि वह शब्द स्पर्श रूप रस गंधात्मक अवयवों से युक्त हुआ करता है । अव्यक्तमें अवयव नहीं होते, क्योंकि अव्यक्त प्रधान में शब्दादि की उपलब्धि नहीं पायी जाती है । जिसप्रकार पिताके जीवित रहते हुए पुत्र स्वतंत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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