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________________ [१०] अभाव नामका अतिशय ही क्यों न माना जाय ? अतिशय ही मानना है तो यही अतिशय संगत है व्यर्थ के द्राविड़ी प्राणायाम से क्या प्रयोजन ? ___ मोक्षस्वरूप विचार-मोक्ष का क्या स्वरूप है इस विषय में वैशेषिक आदि परवादियों में विवाद है-वैशेषिक बुद्धि आदि आत्मीक विशेष गुणों के उच्छेद होने को मोक्ष कहते हैं। अद्वैत उपासक वेदांती नित्य आनंद स्वरूप मोक्ष मानते हैं। विशुद्ध ज्ञान की उत्पत्ति होना मोक्ष है ऐसा बौद्ध का मंतव्य है । प्रकृति और पुरुष के भेद का दर्शन होने पर चैतन्य पुरुष का स्व-स्वरूप में अवस्थान होना मोक्ष है जिसमें कि ज्ञानादि का भी अभाव है ऐसा सांख्य का कहना है। किन्तु इन सबका प्रतिपादन सिद्ध नहीं होता। इस मोक्ष विचार प्रकरण में प्रथम ही वैशेषिक नैयायिक ने अपने बुद्धि आदि गुणों का उच्छेद होना रूप मोक्ष का लक्षण करके अन्य वेदांती आदि के मोक्ष स्वरूप का निरसन किया है फिर जैन ने इन योग के प्रति अपनी स्याद्वादमय सशक्त लेखनी द्वारा प्रतिपादन किया है कि बुद्धि आदि अात्मा के गुणों का उच्छेद होना असंभव है, क्योंकि गुणी आत्मा से बुद्धि आदि गुण अभिन्न है, यदि इन गुणों का उच्छेद होगा तो आत्मा का भी उच्छेद मानना होगा, आत्मा को बुद्धि आदि से पृथक् मानकर समवाय से उनको संयुक्त करने का मंतव्य तो पहले से ही निराकृत हो चुका है। बौद्ध के विशुद्ध ज्ञानोत्पत्ति होने रूप मोक्ष का लक्षण कथंचित् ठीक होते हुए भी सर्वथा क्षणिकवाद में तत्त्वज्ञान का अभ्यास, अभ्यास से सरागज्ञान का नाश और उससे विराग ज्ञान उत्पन्न होना इत्यादि कार्य सिद्ध नहीं हो सकते हैं । वेदांती का आनन्द रूप मोक्ष भी इसलिये निराकृत होता है कि वे लोग इस आनन्द को नित्य मानते हैं जब वह नित्य है तब संसार अवस्था में भी संभव है फिर मोक्ष और संसार में भेद ही काहे का ? सांख्याभिमत मोक्ष का लक्षण भी सदोष है, प्रथम तो यह दोष है कि सर्वथा नित्यवाद में प्रकृति और पुरुष के संसर्ग का अभाव होना पुनश्च पुरुष का चैतन्य मात्र में अवस्थान होना इत्यादि परिवर्तन होना संभव नहीं, दूसरा दोष यह है कि योग के समान इन्होंने भी मोक्ष में ज्ञानादि का अभाव स्वीकार किया है अतः ऐसा मोक्ष का लक्षण सिद्ध नहीं होता, न ऐसे मोक्ष के लिये कोई बुद्धिमान प्रयत्नशील ही हो सकता है । इस प्रकार विभिन्न मोक्ष लक्षणों के निराकृत हो जाने पर अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख एवं अनंत वीर्य इत्यादि आत्मीक गुणों का पूर्ण रूपेण विकसित होना मोक्ष है यही मोक्ष का लक्षण निराबाध एवं निर्दोष सिद्ध होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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