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________________ [६] ही सर्वथा नित्य स्वीकार करने से सांख्य का प्रकृतिकर्तृत्व कथमपि सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि नित्य में किसी प्रकार परिणमन नहीं हो सकने से किसी के प्रति कारणपना होना अशक्य है। प्रकृति से बुद्धि का प्रादुर्भाव मानना तो हास्यास्पद ही है क्योंकि अचेतन प्रकृति से चेतन के धर्म स्वरूप बुद्धि का निर्माण कैसे संभव है ? सत्कार्यवाद के सिद्धि के लिये दिये गये असत् प्रकरणात् इत्यादि पंच हेतु विपक्षभूत असत् कार्यवाद को ही सिद्ध कर देते हैं। सांख्यमत में कोई तो केवल प्रकृति को ही सष्टिकर्ता मानता है और कोई प्रकृति और ईश्वर को कर्ता मानते हैं किन्तु चाहे प्रकृति हो, चाहे प्रकृति और ईश्वर हो दोनों ही जब कूटस्थ नित्य हैं तब उनके द्वारा कार्य की संभावना नहीं की जा सकती अंत में यही निर्दोष रीत्या सिद्ध होता है कि विश्व के यावन्मात्र चेतन अचेतन पदार्थों का कोई एक सर्व शक्तिमान कर्त्ता नहीं है अपितु मनुष्यादि के शरीरादिका कर्त्ता तो कर्म एवं द्रव्यादि सामग्री है एवं अचेतन कार्यों में से कोई कार्य तो स्वयं अचेतन से ही अधिष्ठित है और कोई चेतन से अधिष्ठित है किन्तु वह चेतन भी ईश्वर न होकर सामान्यतः कोई भी प्राणी विशेष है। कवलाहारविचार - श्वेताम्बर जैन अरहंत अवस्था में भगवान के भोजन ग्रहण होना मानते हैं इनका यह अाग्रह है कि बिना भोजन के कुछ कम पूर्व कोटि वर्ष तक उत्कृष्ट रूप से केवली का शरीर टिक नहीं सकता। किन्तु यह कथन सिद्ध नहीं होता है भगवान केवल ज्ञानी के परम प्रौदारिक शरीर है हम जैसे का सामान्य औदारिक नहीं, दूसरी बात उक्त शरीर के लिये प्रतिक्षण दिव्य सूक्ष्म महानपुष्टिकारक ऐसे नोकर्माहार रूप परमाणु प्राया करते हैं इन्हीं से उनका शरीर अवस्थित रहता है। केवली के राग द्वष का सर्वथा अभाव होता है अतः वह भोजन नहीं करते, भोजन तो इच्छा पूर्वक किया जाता है, तथा जब उनके अनंतवीर्य का सद्भाव है तब भोजन से प्रयोजन भी क्या रहता है ? यदि जबरदस्ती माना जाय कि वे पाहार करते हैं तो गृहस्थ के घर में जाकर भोजन करते हैं या समवशरण में ? घर में जाकर करते हैं तो जहां भोजन का लाभ होना है वहीं सीधे जायेंगे तो गोचरीवृत्ति नहीं रही और वैसा नहीं जाते तो दीनता एवं अज्ञानता दिखाई देती है, समवशरण में भोजन करते हैं तो महान प्रासादना हुई ? भोजन करके प्रतिक्रमण करना होगा अतः इनके सदोषता सिद्ध होती है। अंत में झुझलाकर यदि यह कहे कि भगवान् आहार करते हुए दिखायी नहीं देते क्योंकि उनका ऐसा ही अतिशय है तो फिर भोजन नहीं करना रूप भुक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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