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________________ [८] पदार्थ भावी थे उन्हें भावी रूप से ज्ञात किया जाता है वर्तमान रूप से नहीं। उत्तर कल में इससे विपरीत रूप से अर्थात् वर्तमान रूप से ज्ञात किया जाता है, भावी रूप से नहीं। क्योंकि जो वस्तु जिस समय जिस धर्म विशिष्ट होती है, उसे उस समय वैसा ही ज्ञात किया जाता है, अन्यथा रूप से नहीं इत्यादि । ईश्वरवाद-विश्व के संपूर्ण पदार्थ ईश्वर द्वारा निर्मित हैं ऐसी नैयायिक वैशेषिक की मान्यता है, पृथ्वी, पर्वत, शरीरादि पदार्थ कार्यरूप हैं अतः इनका कोई कर्ता अवश्य होना चाहिये, तथा ये पदार्थ अचेतन होने से स्वयं कार्यशील नहीं हो सकते उनको तो कार्य रूप कराने व ला कोई चेतन रूप पदार्थ चाहिये, जैसे मिट्टी अचेतन होने से स्वयं घट रूप नहीं होती किन्तु चेतन कुभकार द्वारा घट रूप होती है ऐसे ही पृथ्वी आदि कार्य किसी चेतन द्वारा निर्मित होने चाहिये। वह चेतन शक्ति, ज्ञान एवं इच्छा व ला होना भी आवश्यक है अन्यथा वह कार्य नहीं कर सकेगा इस प्रकार संपूर्ण पदार्थों को निर्माण करने की शक्ति आदि से संयुक्त जो कोई चेतन है वह ईश्वर है और वह अनादि निधन है। ईश्वर वादी के इस मंतव्य का सयुक्तिक खण्डन करके यह सिद्ध किया है कि विश्व का कोई एक सर्व शक्तिमान् कर्ता नहीं है किन्तु प्रत्येक पदार्थ अंतरंग बहिरंग कारणों से स्वयं कार्य रूप परिणमन करते हैं, यदि ईश्वर द्वारा सृष्टि रची होती तो दीन दुःखी अनाथ मनुष्य, क्र र पशु, अादि की उत्पत्ति कथमपि नहीं हो सकती क्योंकि परम दयालु ईश्वर द्वारा ऐसी रचना होना सर्वथा असंभव है । तथा ईश्वर के शरीर ही नहीं है, केवल इच्छा या ज्ञान मात्र से विश्व का कार्य करना असंभव है। अचेतन कार्यशील स्वयं नहीं होते ऐसा कहना असत् है । मेघ इन्द्रधनुष आदि पदार्थ अचेतन होकर भी स्वयं कार्यशील होते हुए देखे जाते हैं । पृथिवी आदि कार्यों का कर्ता कोई ना कोई होना चाहिए ऐसा जो कहना है सो इनका निर्माण स्वयं के उपादानभूत परमाणुओं से एवं बाध्य निमित्तभूत अनेक सामग्री से हो जाया करता है उनके लिये ईश्वर की आवश्यकता नहीं होती इत्यादि अनेक प्रकार से ईश्वरकर्तृत्व का निरास होता है। प्रकृतिकर्तृत्ववाद-सांख्य प्रकृति को सष्टि का कर्ता मानते हैं-प्रकृति से महान् ( बुद्धि ) महान से अहंकार, उससे षोडशगण उससे पंचभूत प्रादुर्भूत होते हैं । सांख्य सत्कार्यवादी कहलाते हैं इनके यहां कारण में कार्य मौजूद ही रहता है ऐसा माना है। प्राचार्य ने इस वाद का सयुक्तिक निरसन किया है, प्रकृति और पुरुष दोनों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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