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[७] नष्ट होती है उसी प्रकार अनादि प्रवाह रूप से चले आये यावरण कर्म संवर एवं निर्जरा द्वारा नष्ट होते हैं ऐसा सिद्ध होता है ।
सर्वज्ञत्ववाद-भारतीय दर्शनों में मीमांसक और चार्वाक ये दो दर्शन ऐसे हैं कि जो सर्वज्ञ की सत्ता स्वीकार नहीं करते। मीमांसा श्लोकवात्तिक में सर्वज्ञ के निषेध करने हेतु अनेक युक्तियां दी गयी हैं, उन सबको पूर्व पक्ष में रख कर श्री प्रभाचंद्राचार्य ने बहुत सुन्दर रीति से उन युक्तियों का निराकरण किया है। सर्वज्ञ का वर्तमान में अभाव होने के कारण मीमांसक ने उनके द्वारा अभीष्ट छहों प्रमाणों से सर्वज्ञ एवं सर्वज्ञ के ज्ञान का अभाव करने का असफल प्रयत्न किया है, उनका कहना है कि प्रत्यक्ष प्रमाण से सर्वज्ञ की उपलब्धि नहीं होती, अनुमान प्रमाण भी साध्याविनाभावी हेतु के नहीं होने से सर्वज्ञ भगवान अथवा सकल विषयों के ग्राहक पूर्ण ज्ञान को सिद्ध नहीं कर सकता है। आगम प्रमाण यदि नित्य है तो उससे अनित्य रूप सर्वज्ञ की सिद्धि नहीं हो सकती न नित्य आगम रूप वेद में उसका उल्लेख है, और यदि अनित्य आगम से सर्वज्ञ को सिद्ध करना चाहे तो वह इतना प्रमाणभूत नहीं है । अर्थापत्ति एवं उपमा भी सर्वज्ञ का सद्भाव सिद्ध नहीं करती अतः अभाव प्रमाण द्वारा सर्वज्ञ का अभाव ही सिद्ध होता है । जैनाचार्य ने कहा कि प्रत्यक्षादि प्रमाण से सर्वज्ञ की सिद्धि नहीं होती अपितु सुनिश्चित अनुमान प्रमाण से होती है - "सूक्ष्मांतरितादि पदार्थाः कस्यचित् प्रत्यक्षाः अनुमेयत्वात् अग्निवत्" इत्यादि निर्दोष अनुमान द्वारा सर्वज्ञ की सत्ता भलीभांति सिद्ध होती है । सर्वज्ञ का ज्ञान इन्द्रिय द्वारा नहीं होता अतः मीमांसक का यह कहना कि "सर्वज्ञ यदि अशेष पदार्थों को जानता है तो मांस, मल आदि अशुचि पदार्थों का सेवक कहलायेगा, क्योंकि उन पदार्थों को रसना ग्रादि इन्द्रियों से जानता है" सर्वथा हास्यास्पद ठहरता है। मीमांसक ने एक मार्मिक प्रश्न किया है कि सर्वज्ञ के पूर्ण ज्ञान प्रगट होते ही सकल पदार्थ साक्षात् हो जाते हैं अतः आगे के समय में या तो वह असर्वज्ञ हो जायेगा या उसका ज्ञान अपूर्वार्थग्राही नहीं होने से अप्रामाणिक कहलायेगा? इस मार्मिक प्रश्न का उत्तर भी उतना ही मार्मिक दिया गया है कि- "पूर्व हि भाविनोऽग्रा भावित्वेनोत्पस्यमानतया प्रतिपन्ना न वर्तमानत्वेनोत्पन्नतया वा, सापि उत्पन्नता तेषां भवितव्यतया प्रतिपन्ना न भूततया । उत्तरकालं तु तद् विपरीतत्वेन ते प्रतिपन्नाः यदा हि यद् धर्म विशिष्टं वस्तु तदा तज्ज्ञाने तथैव प्रतिभासते नान्यथा, विभ्रमप्रसंगात् । इति कथं ग्रहीतग्राहित्वेनाप्यस्या प्रामाण्यम् ?" अर्थात् पहले जो
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