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________________ १४० प्रमेयकमलमार्तण्डे एकाधिष्ठाना ब्रह्मादयः पिशाचान्ताः परस्परातिशयवृत्तित्वात्, इह येषां परस्परातिशयवृत्तित्वं तेषामे कायत्तता दृष्टा यथेह लोके गृहग्रामनगरदेशाधिपतीनामेकस्मिन्सार्वभौमनरपतौ, तथा भुजगरक्षोयक्षप्रभृतीनां परस्परा तिशयवृत्तित्वं च, तेन मन्यामहे तेषामेकस्मिन्नीश्वरे पारतन्त्र्यम्; इत्यसम्यक्; अत्र हि 'ईश्व राख्येनाधिष्ठायकेनैकाधिष्ठानाः' इति साध्येऽनै कान्तिकता हेतोविपर्यये बाधकप्रमाणाभावात् प्रतिबन्धासिद्धः। दृष्टान्तस्य च साध्य विकलता। 'अधिष्ठायकमात्रे। साधिष्ठानाः' इति साध्ये सिद्धसाध्यता, स्वनिकायस्वामिनः शक्रादेर्भवान्तरोपात्ताऽदृष्टस्य चाधिष्ठायकतयाभ्युपगमात् । यौग-ब्रह्मा से लेकर पिशाच तक जितनी देवयोनि हैं वे सब एकाधिष्ठान स्वरूप ईश्वराधिष्ठित हैं, क्योंकि परस्पर में अतिशय वृत्ति वाले हैं इह लोक में जिनका परस्पर में अतिशयितपना होता है वे एक प्रमुखाधीन देखे जाते हैं, जैसे गृहपति, ग्रामपति, नगरपति आदि एक सार्वभौम ( चक्रवर्ती के ) अधीन हैं, ऐसे ही नागेन्द्र, राक्षस, यक्ष आदि में परस्पर में अतिशयपना है, इसलिये एक ईश्वर में अधिष्ठित हैं ऐसा हम मानते हैं ? जैन-यह कथन अयुक्त है इस अनुमान में एक ईश्वर नाम के अधिष्ठाता से अधिष्ठित ब्रह्मादिक होते हैं ऐसा जो साध्य है, उसमें हेतु की अनैकांतिकता है, क्योंकि इस हेतु के साथ अविनाभाव नहीं होने से विपक्ष में जाना सम्भावित है, कोई बाधक प्रमाण नहीं है । तथा ब्रह्मादिक अधिष्ठान मात्र से अधिष्ठित हैं ऐसा साध्य बनाते हैं तो सिद्ध साध्यता है क्योंकि हम लोग स्वर्ग के देवों का स्वामी इन्द्र को पूर्वभव के पुण्यरूप अधिष्ठायक से अधिष्ठित मानते ही हैं इस प्रकार ईश्वर ही अकेला सकल जगत का कर्ता है ऐसा कथन किसी भी निर्दोष प्रमाण से सिद्ध नहीं होता है अतः ईश्वर के अनादि मुक्तपना किस प्रकार सिद्ध हो सकता है जिससे कि उसको सर्वज्ञ माना जाय। अब यहां जगत कर्तृत्व का निरसन करने वाला अनुमान उपस्थित करते हैंपृथ्वी, पर्वत आदिक पदार्थ एक एक स्वभाव पूर्वक नहीं होते हैं, क्योंकि विभिन्न देश, विभिन्न काल एवं विभिन्न आकार वाले हैं जो इस प्रकार हैं वे ऐसे ही होते हैं, जैसेघट, पट, मुकुट, शकट विभिन्न विभिन्न देश आदि विशेष रूप रहते हैं, अतः एक स्वभाव पूर्वक नहीं होते हैं, पृथ्वी पर्वत आदि पदार्थ भी भिन्न भिन्न देश, काल और प्राकार से युक्त हैं अतः ये भी एक स्वभाव पूर्वक नहीं हैं । यह विभिन्न देश काल श्राकारत्व हेतु असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि इन पृथ्वी, पर्वत, वृक्ष प्रादि पक्ष में, भिन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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