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________________ ईश्वरवादः १३६ किञ्च, अन्योपदेशपूर्वकत्वमात्रे साध्ये सिद्धसाध्यता; अनादेर्व्यवहारस्याशेषपुरुषाणामन्योपदेशपूर्वकत्वेनेष्टत्वात् । ईश्वरोपदेशपूर्वकत्वे तु साध्येऽनैकान्तिकता, अन्यथापि तत्सम्भवात् । साध्यविकलता च दृष्टान्तस्य । न चास्योपदेष्ट्र त्वसम्भवो विमुखत्वान्मुक्तात्मवत् । तच्च वितनुकरणतयोपगमात्प्रसिद्धम् । 'स्थित्वा प्रवृत्तेः' इति चेश्वरेणेवानकान्तिकम्, स हि क्रमवत्कार्येषु स्थित्वा प्रवर्त्तते न च चेतनान्तराधिष्ठितोऽनवस्थाप्रसङ्गात् इति । अनयैव दिशा 'सप्तभुवनान्येकबुद्धिमन्निमितानि एकवस्त्वन्तर्गतत्वादेकावसथान्तर्गतापवरकवत्' इत्यादिपरकीयप्रयोगोऽभ्यूह्यः । न ह्य कावसथान्तर्गतानामपवरकादीनामेकसूत्रधारनिमितत्वनियमः येनेश्वरः सकलभुवनैकसूत्रधारः सिद्धयेत्, अनेकसूत्रधारनिर्मितत्वस्याप्युपलम्भात् । उपदेश पूर्वक ही होवे सो बात नहीं है चोरी आदि असत् कार्यों में बिना परोपदेश के भी प्रवृत्ति होती है ] तथा यौग को इतना ही इष्ट हो कि कार्य में पुरुष की प्रवृत्ति अन्य उपदेश पूर्वक ही होती है, तो यह सिद्ध साध्यता है । क्योंकि व्यवहार अनादि कालीन है, सभी पुरुषों की कार्य में प्रवृत्ति सामान्यतः अन्य किसी के उपदेश पूर्वक होती है यह बात तो इष्ट है, किन्तु आप अन्योपदेश का अर्थ ईश्वर पूर्वक ही करें और उसो को साध्य बनावे तब तो साध्य में अनैकान्तिकता होगी, क्योंकि अन्य प्रकार से भी उपदेश संभव है, दृष्टांत भी साध्य विकल है । ईश्वर का उपदेश देना भी शक्य नहीं है, क्योंकि वह विमुख है जैसे मुक्तात्मा विमुख होने से उपदेशक नहीं है, उसका विमुखपना शरीर एवं इन्द्रिय रहित स्वीकार करने से प्रसिद्ध ही है । जगत के कार्य चेतानान्तर से अधिष्ठित होकर ही प्रवर्तते हैं ऐसा सिद्ध करते समय 'उद्योत करने' "स्थित्वा प्रवृत्तेः" यह हेतु दिया है किन्तु वह ईश्वर से ही व्यभिचरित है, ईश्वर क्रमिक कार्यों में ठहरकर प्रवृत्ति करता है, किन्तु अन्य चेतन से अधिष्ठित होकर नहीं करता अन्यथा अनवस्था का प्रसंग आयेगा। यहां तक अन्य अन्य ग्रथकारों द्वारा रचित ईश्वर सिद्धि सम्बन्धी आगम वाक्यों का खंडन हुआ, इसी तरह “सातों भुवन एक बुद्धिमान के द्वारा निर्मित हैं" क्योंकि वे एक वस्तु के अन्तर्गत हैं, जैसे महल के अन्तर्गत कमरे होते हैं, इत्यादि अनुमान वाक्य भी निराकृत समझना । एक महल के अन्तर्गत जो अनेक कमरे हैं उनको एक सूत्रधार ने ही बनाया हो सो बात नहीं है अतः उसके समान ईश्वर भी सकल भुवन का एक सूत्रधार है ऐसा कहना सिद्ध नहीं होता, महल के कमरे अनेक सूत्रधार निर्मित भी हो सकते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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