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________________ ईश्वरवादः १२५ यच्चोक्तम्-'साध्याभावेपि प्रवर्त्तमानो हेतुर्व्यभिचारीत्युच्यते । न च तत्र कर्वभावो निश्चितः किन्त्वग्रह राम्' इति; तदुक्तिमात्रम्; प्रमाणाविषयत्वेपि स्थावरादौ कञऽभावानिश्चये गगनादौ रूपाद्यभावानिश्चयः स्यात् । तत्र रूपादीनां बाधकप्रमाणसद्भावेनाभावनिश्चये अत्रापि तथा कर्बभावनिश्चयोस्तु । न चास्यानुपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वादभावानिश्चयः; शरीरसम्बन्धेन हि कर्तृत्वं नान्यथा मुक्तात्मवत्, तत्सम्बन्धे चोपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वप्रसङ्गः कुम्भकारादिवत् । तस्य हि शरीरसम्बन्ध एव दृश्यत्वं नान्यत्, स्वरूपेणात्मनोऽदृश्यत्वात् पिशाचादिशरीरवत् । तच्छरीरस्यादृश्यत्वोपगमे च किञ्चिकार्यमप्यबुद्धिपूर्वकं स्यादित्युक्तम् ।। यत्तूक्तम्-क्षित्याद्यन्वयव्यतिरेकानुविधानात्तेषामेव कारणत्वे धर्माधर्मयोरपि तन्न स्यात् तन्न को अपौरुषेय सिद्ध करता है उसमें वेदाध्ययन वाच्यत्व हेतु देता है किन्तु वह हेतु अपने अपौरुषेयत्व रूप साध्य को सिद्ध नहीं कर पाता है, ऐसा स्वयं योग कहते हैं । कहने का अभिप्राय यही है कि स्व आगम के ज्ञान मात्र से व्युत्पन्न मति नहीं होता, अनुमान के विषय में तो बिल्कुल नहीं होता वहाँ तो अनुमान सम्बन्धी साध्य, पक्ष, हेतु अविनाभाव सम्बन्ध आदि विषयों में ज्ञान प्राप्त करना होगा । हेत्वाभास आदि दोषों की जानकारी भी प्राप्त करनी होगी तभी वह अनुमान में व्युत्पन्न मतिवाला कहलायेगा । जो हेतु साध्य के अभाव में भी रहता है उसे व्यभिचारी कहते हैं, वहां पृथ्वी आदि के विषय में कर्ता का अभाव नहीं है किंतु वह ग्रहण में नहीं आता है इत्यादि पूर्वोक्त कथन बकवास मात्र है, वृक्ष आदि स्थावरों का कर्ता प्रमाण का अविषय होते हुए भी उसके प्रभाव का अनिश्चय मानेंगे तो आकाश आदि में रूपादि के अभाव का अनिश्चय है ऐसा मानना होगा। ___ यौग-अाकाश में रूपादि के अभाव का निश्चय तो बाधक प्रमाण के सद्भाव से हो जाता है। जैन-इसी तरह पृथ्वी आदि में कर्ता के अभाव का निश्चय होवे । यौग-पृथ्वी आदि में कर्ता के अभाव का अनिश्चय इसलिये रहता है कि वह कर्ता अनुपलब्धि लक्षण वाला है। जैन-यह बात बिल्कुल असत्य है, शरीर के सम्बन्ध से ही कर्तापन हो सकता है अन्यथा नहीं जैसे मुक्तात्मा के नहीं है । अत: यदि ईश्वर के शरीर का सम्बन्ध है तो कुभकारादि के समान वह उपलब्धि लक्षण वाला ही सिद्ध होता है । उसके दृश्यत्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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