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________________ १२४ प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रकृतकार्ये तस्याऽव्यापारोऽपरापरशरीरनिर्वर्त्तने एवोपक्षीणशक्तिकत्वात् । तदनिष्पाद्य चेत्; तत्कि कार्यम्. नित्यं वा ? प्रथमपक्षे तेनैव हेतोर्व्यभिचारस्तस्य कार्यत्वेप्यबुद्धिमत्पूर्वकत्वात् । बुद्धिमत्कारणान्तरपूर्वकत्वे चानवस्था, तच्छरीरस्याप्यपरबुद्धिमत्कारणान्तरपूर्वकत्वात् । नित्यं चेत्; तर्हि तच्छरीरस्य शरीरत्वाविशेषेपि नित्यत्वलक्षणः स्वभावातिक्रमो यथाभ्युपगम्यते, तथा भूरुहादेः कार्यत्वे सत्यप्यकर्तृ पूर्वकत्वलक्षणोप्यभ्युपगम्यताम् इति स एव तैर्व्यभिचारः कार्यत्वादेः । तन्न प्रतिबन्धप्रतिपत्तिलक्षणा व्युत्पत्तिस्तेषाम् । अथ तद्वयतिरिक्ता व्युत्पत्तिः; सा स्वदुरागमाहितवासनावतां भवतु, न पुनस्तावन्मात्रेण कार्यत्वादेः साध्यं प्रति गमकत्वम् । अन्यथा वेदे मीमांसकस्य वेदाध्ययनवाच्यत्वादेरपौरुषेयत्वं प्रति गमकत्वं स्यात् । के निर्माण में ) उसकी प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी क्योंकि अन्य अन्य शरीर के निर्माण में ही उसकी शक्ति समाप्त हो जायगी। यदि कहा जाय कि वह शरीर अनिष्टपाद्य होता है तो वह कार्यरूप है अथवा नित्य है ? प्रथम पक्ष माने तो उसीसे कार्यत्व हेतु व्यभिचारी होगा क्योंकि कार्य रूप होते हुए भी उसको अबुद्धिमान पूर्वक स्वीकार कर लिया। यदि उस शरीर को बुद्धिमान कारण पूर्वक माने तो अनवस्था पाती है क्योंकि वह शरीर भी अन्य बुद्धिमान हेतु पूर्वक होगा यदि उस शरीर को नित्य मानते हैं तो जैसे ईश्वर के शरीर में शरीरपना समान रूप से होते हुए भी नित्य रूप स्वभाव का अतिक्रम स्वीकार करते हैं वैसे वृक्ष आदि में कार्यपना समान रूप से होते हुए भी अकर्तृत्व रूप स्वभाव का अतिक्रम स्वीकार करना चाहिये, इस प्रकार कार्यत्वादि हेतु में वही पूर्वोक्त व्यभिचार दोष आता है । इसलिये व्युत्पन्न पुरुषों की व्युत्पत्ति अविनाभाव सम्बन्ध को जानने रूप होती है ऐसा पक्ष सिद्ध नहीं हो पाता है । वह व्युत्पति अविनाभाव सम्बन्धी प्रतिपत्ति से अतिरिक्त स्वभाव वाली है ऐसा दूसरा पक्ष कहो तो इस तरह की व्युत्पत्ति अपने कुशास्त्र की वासना से संसक्त हुए यौग के ही रह पावे, इस व्युत्पत्ति द्वारा कार्यत्व आदि हेतु का साध्य के प्रति गमकपना कथमपि सिद्ध नहीं हो सकता है अन्यथा वेद में मीमांसक द्वारा प्रयुक्त हुअा वेदाध्ययन वाच्यत्वादि हेतु भी अपौरुषेयत्व साध्य के प्रति गमक होंगे। भावार्थ-अपने अागमादि को जानने मात्र से व्युत्पन्न मति होते हैं उसी से अनुमान हेतु आदि को सिद्ध कर सकते हैं ऐसा मानें तो बहुत गड़बड़ी मचेगी, सभी वादी प्रतिवादी अपने अपने प्रागमादि से अपना मत स्थापित कर सकेंगे, मीमांसक वेद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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