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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे सूक्तम्; जगद्वैचित्र्यान्यथानुपपत्त्या तयोस्तत्कारणत्वप्रसिद्धः। भूम्यादेः खलु सकलकार्य प्रति साधारणत्वात् अदृष्टाख्यविचित्रकारणमन्तरेण तद्वैचित्र्यानुपपत्तिः सिद्धा। यदप्युक्तम्-तत्र बुद्धिमतोऽभावादग्रहणं भावेप्यनुपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वाद्वेति सन्दिग्धव्यतिरेकित्वे सकलानुमानोच्छेदः । यया सामग्रया धूमादिर्जन्यमानो दृष्टस्तां नातिवर्त्तत इत्यन्यत्रापि समानम्; तदप्ययुक्तम्; यादृग्भूतं हि घटादिकार्यं यादृग्भूतसामग्रीप्रभवं दृष्ट तादृग्भूतस्यैव तदतिक्रमाभावो नान्याग्विधस्य धूमादिवदेवेत्युक्त प्राक् । का अर्थ शरीर का सम्बन्ध होना ही है अन्य नहीं । क्योंकि आत्मा तो स्वरूप से ही अदृश्य है । यदि ईश्वर के शरीर को अदृश्य मानते हैं तो कोई कोई कार्य बुद्धिमान कर्ता के बिना भी होता है ऐसा भी मानना चाहिये । पूर्व में कहा गया था कि यदि पृथ्वी आदि का अन्वय व्यतिरेक पृथ्वी आदि के साथ ही है अतः वे ही कारण हैं ऐसा मानने पर तो धर्म अधर्म भी पृथ्वी आदि के कारण सिद्ध नहीं हो सकेंगे इत्यादि, सो वह कथन अयुक्त है, धर्म अधर्म के कारणपने की सिद्धि तो जगत विचित्रता के अन्यथानुपपत्ति से हो जाती है । पृथ्वी कारण तो सकल कार्य के प्रति सर्व साधारण है, अदृष्ट नामक विचित्र कारण के बिना जगत वैचित्र्य की सिद्धि नहीं हो सकती, अर्थात् संपूर्ण कार्य के प्रति पृथ्वी आदि पदार्थ सामान्य कारण हैं और धर्म अधर्म विशेष कारण है । कार्यों की विभिन्नता देखकर ही धर्म अधर्म की सिद्धि होती है । यौग ने पहले कहा था कि बुद्धिमान कर्ता का अभाव है अथवा सद्भाव होने पर भी अनुपलब्धि लक्षण वाला है अतः अग्रहण होता है । इस प्रकार कहकर कार्यत्व हेतु को संदिग्ध व्यतिरेकी माना जाय तो सकल अनुमानों का उच्छेद हो जायगा । जिस सामग्री से धूमादि हेतु उत्पन्न हुआ देखा जाता है वह उसका उल्लंघन नहीं करता ऐसा कहे तो कार्यत्वादि हेतु में भी यही बात है इत्यादि सो यह योग का कथन अयुक्त है जिस तरह का घटादि कार्य जिस तरह की सामग्री से जायमान है वह उसी प्रकार की सामग्री का ही अतिक्रमण नहीं करता है, उसमें अन्य प्रकार की सामग्री का तो अतिक्रमण होता ही है, जैसे धूमादि कार्य हेतु होता है, इस विषय में पहले कह चुके हैं । और जो कहा था कि "ज्ञान, चिकीर्षा और प्रत्यन आधारता, ये तीन प्रकार की कर्तृता है, इस कर्तृत्व के लिये शरीर होना या नहीं होना जरूरी नहीं है सो यह प्रयुक्त है, शरीर के अभाव में कर्तृत्व का आधार होना असंभव है, जैसे मुक्तात्मा में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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