SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२ प्रमेयकमलमार्तण्डे लम्भप्रसङ्गो ज्ञानातिशयवत्सु चाखिलशास्त्रव्याख्यातृषु वचनातिशयोपलम्भो न स्यात् । न चैवम्, ततो ज्ञानप्रकर्षतरतमाद्यनुविधानदर्शनात्तस्य तत्कार्यता सातिशयतक्षादिकारणधर्मानुविधायिप्रासादादिकार्यविशेषवत् । तन्नानुमानात्तदभावसिद्धिः । ___ नाप्यागमात्, स हि तत्प्रणीतः, अन्यप्रणीतः, अपौरुषेयो वा तदभावसाधकः स्यात् ? तत्र यद्यागमप्रणेता सकलं सकलज्ञविकलं साक्षात्प्रतिपद्यते युक्तोसौ तत्र प्रमाणम्, किन्तु विद्यमानोपि न प्रकृतार्थोपयोगी, तथा प्रतिपद्यमानस्य तस्यैवाशेषज्ञत्वात् । न प्रतिपद्यते चेत्, तहि रथ्यापुरुषप्रणीतागमवन्नासौ तत्र प्रमाणम् । न ह्यविदितार्थस्वरूपस्य प्रणेतुः प्रमाण भूतागमप्रणयनं नामातिप्रसङ्गात् । द्वितीय विकल्पेप्येतदेव वक्तव्यम् ।। अपौरुषेयोप्यागमो जैमिन्यादिभ्यो यदि सर्वत्र सर्वदा सर्वज्ञाभावं प्रतिपादयेत्तहि सर्वस्मै प्रतिपादयेत् केनचित् सह प्रत्यासत्तिविप्रकर्षविरहात् । तथा चउनमें यदि आगम का प्रणयन करने वाला संपूर्ण जगत को सर्वज्ञ से रहित साक्षात् ज्ञान से जानता होता तो उसका कथन प्रमाणभूत होता किन्तु ऐसा कोई होवे तो भी प्रकृत में सर्वज्ञाभाव करने में उपयोगी नहीं होगा क्योंकि जो ऐसा सर्व जगतको जानता है वही सर्वज्ञ बन जाता है। यदि कहो कि “सकल जगत सर्वज्ञता से रहित है" ऐसा वह आगम प्रणेता नहीं जानता है तो उसका आगम रथ्यापुरुष प्रणीत आगम के समान होने से सर्वज्ञाभाव सिद्धि में प्रामाणिक नहीं माना जायगा। जिसने तत्व स्वरूप को भली प्रकार नहीं जाना है वह प्रणेता प्रामाणिक आगम की रचना नहीं कर सकता, यदि कर सकता है तो रथ्यापुरुष भी कर सकेगा। अन्य सामान्य पुरुष द्वारा प्रणीत आगम से सर्वज्ञाभाव करते हैं तो उस पक्ष में भी यही उपयुक्त दोष आते हैं। अपौरुषेय आगम से सर्नज्ञाभाव होना मानें तो वह आगम जैमिनि आदि को सर्वज्ञाभाव बताता है तो सभी व्यक्ति के लिए सब जगह हमेशा सर्वज्ञाभाव को बतलायेगा, किसी के साथ उस अपौरुषेय पागम की निकटता और दूरता तो है नहीं इसलिये सबको ही सर्वज्ञाभाव की सिद्धि होनी थी ? किन्तु निम्नलिखित प्रागम वाक्यों से सर्वज्ञ सिद्ध होता है : "विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतो मुखो, विश्वतो बाहुरुत विश्वतः पात् ।। संबाहुभ्यां धमति संपतत्रैः, द्यावा भूमि जनयन् देव एकः ।।१।। अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः । स वेत्ति विश्वं न हि तस्य वेत्ता तमाहुरग्रय पुरुषं महान्तम् ।।२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy