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________________ सर्वज्ञत्ववादः १३ "विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतो मुखो विश्वतो बाहुरुत विश्वतः पात् ।' [ श्वेताश्वत० ३/३ ] स वेत्ति विश्वं न हि तस्य वेत्ता तमाहुरग्रय पुरुषं महान्तम् ।" [श्वेताश्वत० ३/१६] “हिरण्यगर्भ' [ ऋग्वेद अष्ट० ८ मं० १० सू० १२१ ] प्रकृत्य "सर्वज्ञः” इत्यादौ न न कस्यचिद्विप्रतिपत्तिः स्यात्-'किमनेन सर्वज्ञः प्रतिपाद्यते कर्मविशेषो वा स्तूयते' इति । न खलु प्रदीपप्रकाशिते घटादी कस्यचिद्विप्रतिपत्तिः-'किमयं घटः पटो वा' इति । न च स्वरूपेऽस्याप्रामाण्यम् । अविसंवादो हि प्रमाणलक्षणं कार्ये स्वरूपे वार्थे, नान्यत् । यत्र सोस्ति तत्प्रमाणम् । न चाशेषज्ञाभावावेदकं किञ्चिद्वेदवाक्यमस्ति, तत्सद्भावावेदकस्यैव श्रुतेः । नन्नागमादप्यस्याभावसिद्धिः । नाप्युपमानात्; तत्खलुपमानोपमेययोरध्यक्षत्वे सति सादृश्यावलम्बनमुदयमासादयति नान्यथा। जिसके सब ओर चक्षु हैं तथा सब ओर मुख सब अोर हाथ सब ओर पाद भी हैं, पुण्य तथा पाप के द्वारा जगत की रचना करता है तथा परमाणुओं के द्वारा भी पृथ्वी और स्वर्ग को वही एक ईश्वर उत्पन्न करता है ।।१।। हस्त पाद रहित होकर भी शीघ्रगामी है, ग्रहीता है, चक्षुरहित होकर देखता है, कर्ण रहित होकर सुनता है ऐसा ईश्वर है, वह सबको जानता है किन्तु उसको कोई नहीं जानता ऐसे अनादि प्रधान महान पुरुष को ईश्वर कहते हैं ।।२।। ऋग्वेद में उस सर्वज्ञ को हिरण्यगर्भ नाम से पुकारा है। सर्वज्ञः इस पद में किसी को विवाद नहीं है, इस प्रकार वेद, पुराण आदि में कहा जाता है । इन आगम वाक्यों से क्या सर्वज्ञ का प्रतिपादन किया जा रहा है अथवा कर्म विशेष का प्रतिपादन है ? यदि सर्वज्ञ का प्रतिपादन है तो विवाद ही नहीं रहा। दीपक के द्वारा घटादि के प्रकाशित होने पर किसी को विवाद नहीं होता है कि “यह क्या घट है, अथवा पट है" इत्यादि । आप वस्तु के स्वरूप के विषय में वेद वाक्य को प्रमाण मानते हैं, श्र तिवाक्य को नहीं मानते, सो यह मान्यता ठीक नहीं है, प्रमाण का लक्षण तो अविसंवादी होना है। दोनों में यही प्रमाण का लक्षण है अन्य अन्य लक्षण नहीं है जिसमें वह अविसंवादीपना है वह प्रमाण है, फिर चाहे वेद वाक्य हो चाहे श्र तिवाक्य हो । यह भी एक बात है कि सर्वज्ञका अभाव बतलाने वाला वेद वाक्य नहीं है। श्र ति में तो सर्वज्ञ का सद्भाव ही सद्भाव बताया है । इसलिये आगम प्रमाण से सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध करना शक्य नहीं है । उपमा प्रमाण से सर्वज्ञ का अभाव करना भी शक्य नहीं है । उपमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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