SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सर्वज्ञत्ववादः ६१ नापि स्वसम्बधिनोऽनुपलम्भात्तद्वयतिरेक निश्चयः; अस्य परचेतोवृत्तिविशेषैरनेकान्तिकत्वात् । न चाखिलसाधनेषु दोषस्यास्य समानत्वान्निखिलानुमानोच्छेदः, तत्र विपक्षव्यावृत्ति निमित्तस्यानुपलम्भव्यतिरेकेण प्रमाणान्तरस्य भावात् । न चात्र कार्यकारणभावः प्रसिद्ध.; असर्वज्ञत्वधर्मानुविधानाभावाद्वचनस्य । यद्धि यत्कार्यं तत्तद्धर्मानुविधायि प्रसिद्ध वन्ह्यादिसामग्रीगतसुरभिगन्धाद्यनुविधायिधूमवत् । तथाहि असर्वज्ञत्वं सर्वज्ञत्वादन्यत्पर्युदास वृत्त्या किञ्चिज्ज्ञत्वमभिधीयते । न च तत्तरतमभावाद्वचनस्य तथाभावो दृश्यते तद्विप्रकृष्टमत्यल्पज्ञानेषु कृम्यादिषु, न च तत्र वचनप्रवृत्तेः प्रकर्षो दृश्यते । अथ प्रसज्यप्रतिषेधवृत्त्या सर्वज्ञत्वाभावोऽसर्वज्ञत्वं तत्कार्यं वचनम्; तहि ज्ञानरहिते मृतशरीरादौ तस्योप का निमित्त प्रमाणांतर मौजूद है । यहां असर्वज्ञत्व और वक्त त्व में कार्यकारण भाव तो दिखाई नहीं देता, वक्त त्व असर्वज्ञके साथ अन्वय नहीं रखता। जो जिसका कार्य होता है वह उसके धर्म का अनुविधान करता है, जैसे अग्नि आदि सामग्रीमें होने वाला सुगंधित गंध आदि धर्मका अनुविधान धूम भी कर लेता है, अर्थात् अग्नि में यदि चंदन को लकड़ो है तो उस अग्निरूप कारण का कार्य जो धूम है वह भी सुगंधित होवेगा । ऐसा अनुविधान वक्त त्व हेतु में नहीं है, इसी को बताते हैं-जो सर्वज्ञत्व से अन्य हो उसे असर्वज्ञत्व कहते हैं, "न सर्वज्ञत्वं असर्वज्ञत्वं" इस प्रकार पर्यु दासवृत्ति से असर्वज्ञत्व पद का अर्थ अल्पज्ञत्व होता है। इस अल्पज्ञत्व की तरतमता से वचन की तरतमता होती है ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि अति अल्पज्ञान वाले कृमि आदि जीवोंमें अल्पज्ञपना अधिक है किन्तु वचन का अधिकपना नहीं है । “न सर्वज्ञत्वं असर्वज्ञत्वं" इस समास में नकार का अर्थ सर्वथा अभाव रूप प्रसज्य-प्रतिषेध करते हैं अर्थात् सर्वज्ञत्व के अभाव को असर्वज्ञत्व मानते हैं और उसका कार्य वचन है ऐसा कहते हैं तो ज्ञानरहित मृतक शरीर आदि में उसकी उपलब्धि होने का प्रसंग आयेगा, और जो अतिशय ज्ञानवान हैं, अखिल शास्त्रों के व्याख्याता हैं उनमें वचनातिशय उपलब्ध न हो सकेगा। किन्तु ऐसा नहीं होता अतः वचन में ज्ञान के प्रकर्ष की तरतमता का अनूविधान दिखाई देने से वह ज्ञानातिशय का कार्य है, जिस प्रकार बुद्धिमान बढई आदि रूप कारण धर्म का अनु. विधान उनके महल आदि कार्य में दिखाई देता है, अर्थात् बढई आदि शिल्पी तथा अन्य साधन जितने उत्तम होंगे उतना ही प्रासाद सुन्दर बनेगा, उसी प्रकार जितना ज्ञानातिशय होगा उतना वक्त त्व में सातिशयपना होगा अतः वक्त त्व हेतुवाले अनुमान द्वारा सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध नहीं होता है । आगम प्रमाण से भी सर्वज्ञ का अभाव नहीं कर सकते । वह आगम सर्वज्ञ प्रणीत है, या अन्य अल्पज्ञ प्रणीत है, अथवा अपौरुषेय है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy