SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सन्निकर्षवादः scfविशेषात् । कथमन्यथा दिक्कालाकाशात्मनां व्यापिद्रव्यता ? प्रथाऽव्यापि द्रव्यम्; तत्कि मनः, नयनम्, आलोको वा ? त्रितयस्याप्यस्य सान्निध्यं घटादीन्द्रियसन्निकर्ष वदाकाशादीन्द्रियसन्निकर्षेऽप्यस्त्येव । गुणोऽपि तत्सहकारी प्रमेयगतः, प्रमातृगतो वा स्यात् उभयगतो वा । प्रमेयगतश्चेत्; कथं नाकाशस्य प्रत्यक्षता द्रव्यत्वतोऽस्यापि गुरणसद्भावाविशेषात् ? अमूर्तत्वान्नास्य प्रत्यक्षतेऽत्यप्ययुक्तम् ; सामान्यादेरप्यप्रत्यक्षत्वप्रसङ्गात् । प्रमातृगतोऽप्यदृष्टोऽन्यो वा गुरणो गगनेन्द्रियसन्निकर्षसमयेऽस्त्येव । न खलु तेनास्य विरोधो येनानुत्पत्तिः प्रध्वंसो वा तत्सद्भावेऽस्य स्यात् । उभयगतपक्षेऽप्युभयपक्षोपक्षिप्तदोषानुषङ्गः । कर्माऽप्यर्थान्तरगतम्, इन्द्रियगतं वा तत्सहकारि स्यात् ? न तावदर्थान्तरगतम् ; विज्ञानोत्पत्तौ तस्यानङ्गत्वात् । इन्द्रियगतं तु तत्तत्रास्त्येव; आकाशेन्द्रियसन्निकष नयनोन्मीलनादिकर्मणः सद्भावात् । प्रतिबन्धापायरूपयोग्यतोपगमे तु सर्वं सुस्थम्, यस्य यत्र यथाविधो हि प्रतिबन्धा Jain Education International ४३ आत्मा, काल इन्हें व्यापी क्यों मान रखा है । यदि श्रव्यापी द्रव्य मानों तो वे कौन हैं ? क्या मन है ? या नेत्र हैं ? या प्रकाश है ? इन तीनों की निकटता घटादि के साथ इन्द्रिय सन्निकर्ष की तरह आकाशादि के साथ इन्द्रिय सन्निकर्ष में भी है, फिर क्या कारण है कि आकाशादि का ज्ञान नहीं होता, यदि गुण को सहकारी कारण माना जाय तो क्या प्रमेयगत गुण को या प्रमातृगत गुणको या दोनों में रहे हुए गुण को किसको सहकारी माना जाय ? प्रमेयगत - प्रमेय में रहा हुआ - गुण सहकारी है ऐसा कहो तो आकाश की प्रत्यक्षता क्यों नहीं क्योंकि आकाश भी द्रव्य होने के कारण गुणवाला है ही, आकाश अमूर्त होने के कारण प्रत्यक्ष नहीं होता - प्रत्यक्षज्ञान का विषय नहीं होता - सो यह कथन भी ठीक नहीं है, कारण कि ऐसा मानने पर तो सामान्यादिक तथा गधादि अनेक वस्तुएं भी अप्रत्यक्ष हो जावेंगी तथा गंधादि को आपने अमूर्त माना है, अतः वे भी प्रकाश की तरह जानने में नहीं आवेंगे । प्रमाता में होनेवाला - रहा हुप्रा - गुरग सहकारी होता है ऐसा मानना भी ठीक नहीं, क्योंकि प्रमाता का अदृष्ट गुण अथवा और कोई भी गुरण आकाश और इन्द्रिय सन्निकर्ष के समय है ही । आकाश और इन्द्रिय सन्निकर्ष के साथ सहकारी गुण का कोई विरोध तो है नहीं जिससे कि वह ज्ञान पैदा न करे या उस सहकारी गुरण का आकाश और नेत्रेन्द्रिय सन्निकर्ष के समय विनाश हो जाय । प्रमाता और प्रमेय इन दोनों का गुण सहकारी है ऐसा मानो तो दोनों पक्ष में दिये गये दोष यहां ग्राकर पड़ेंगे । कर्म को ( क्रिया को ) सन्निकर्ष का सहकारी मानो तो भो गलत है, कारण कि कर्म दो प्रकार का हो सकता है - एक प्रमेय का कर्म और दूसरा इन्द्रिय का कर्म । क्योंकि इन सामान्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy