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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे - "भावाभावयोस्तद्वत्ता साधकतमत्वम्" [ ] इत्यभिधानात् । न चैतत्सन्निकर्षादौ सम्भवति । तद्भावेऽपि क्वचित्प्रमित्यनुत्पत्त:; न हि चक्षुषो घटवदाकाशे संयोगो विद्यमानोऽपि प्रमित्युत्पादकः; संयुक्तसमवायो वा रूपादिवच्छब्दरसादौ, संयुक्तसमवेतसमवायो वा रूपत्ववच्छन्दत्वादौ । तदभावेऽपि च विशेषणज्ञानाद्विशेष्यप्रमितेः सद्भावोपगमात् । योग्यताभ्युपगमे सैवास्तु किमनेनान्तर्गडुना ? योग्यता च शक्तिा, प्रतिपत्तः प्रतिबन्धापायो वा ? शक्तिश्चेत् ; किमतीन्द्रिया, सहकारिसानिध्यलक्षणा वा ? न तावदतीन्द्रिया; अनभ्युपगमात् । नापि सहकारिसान्निध्यलक्षणा; कारकसाकल्यपक्षोक्ताशेषदोषानुषङ्गात् । सहकारिकारणं चात्र द्रव्यम्, गुणः, कर्म वा स्यात् ? द्रव्यं चेत् ; कि व्यापि द्रव्यम्, अव्यापि द्रव्यं वा ? न तावद् व्यापिद्रव्यम् ; तत्सान्निध्यस्याकाशादीन्द्रियसन्निकर्षे पर भी कहीं आकाशादि में (आकाशादिके विषयमें) प्रमिति नहीं होती है, जिस प्रकार आंख का घट के संयोग है वैसे आकाश के साथ भी उसका संयोग है, किन्तु वह संयोगरूप सन्निकर्ष वहां प्रमिति को पैदा नहीं करता, मतलब-जैसे आंख से घट का ज्ञान होता है वैसे आकाश का ज्ञान नहीं होता, ऐसे ही संयुक्त समवाय नामक सन्निकर्षरूप संबंध से घट में रूप के समान ही रहे हुए शब्द, रस का भी ज्ञान क्यों नहीं होता, तथा संयुक्त समवेत समवाय संबंध से रहनेवाले रसत्व आदि का ज्ञान भी क्यों नहीं होता है, सन्निकर्ष के अभाव में भी विशेषण ज्ञान से विशेष्य की प्रमिति होती है, ऐसा आपने माना है, यदि कहो कि घट की तरह आकाश के साथ भी सन्निकर्ष तो है, फिर भी जहां घटादि में योग्यता है वहां पर ही प्रमितिरूप कार्य पैदा होता है तो फिर इस प्रकार मानने पर योग्यता को ही स्वीकार कर लो अतरंग फोड़े की तरह इस सन्निकर्ष को काहे को मानते हो, योग्यता क्या चीज है ? कहो-क्या शक्ति का नाम योग्यता है ? अथवा प्रतिपत्ता-जाननेवाले ज्ञाता-के प्रतिबन्धक कर्म का प्रभाव होना यह योग्यता है । शक्ति को योग्यता कहा जावे तो वह अतीन्द्रिय है या सहकारी की निकटता होने रूप है ? अतीन्द्रिय शक्ति तो आपने मानी नहीं है, और सहकारी सान्निध्यरूप शक्ति यदि मानोगे तो कारकसाकल्यवाद की तरह उसमें अनेक दोष आते हैं। अच्छा यह बतलाओ कि सहकारी कारक यहां कौन है-द्रव्य है या गुण या कि कर्म ? द्रव्य मानो तो उसके दो भेद हैं-एक अव्यापिद्रव्य और दुसरा व्यापिद्रव्य । व्यापीद्रव्य तो कह नहीं सकते, क्योंकि उसकी निकटता तो आकाश आदि और इन्द्रिय सन्निकर्ष में है ही, इसमें कोई विशेषता नहीं है। नहीं तो आपने दिशा, अाकाश, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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