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सन्निकर्षवादः
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मा भुत् कारकसाकल्यस्यासिद्धस्वरूपत्वात् प्रामाण्यं सन्निकर्षादस्तु सिद्धस्वरूपत्वात्प्रमित्युत्पत्तौ साधकतमत्वाच्च तत्स्यात् । सुप्रसिद्धो हि चक्षुषो घटेन संयोगो रूपादिना ( संयुक्तसमवायः रूपत्वादिना ) संयुक्तसमवेतसमवायो ज्ञानजनकः । साधकतमत्वं च प्रमाणत्वेन व्याप्तं न पुनर्ज्ञानत्वमज्ञानत्वं वा संशयादिवत्प्रमेयार्थवच्च इत्यसमीक्षिताभिधानम्; तस्य प्रमित्युत्पत्ती साधकतमत्वाभावात् । यद्भावे हि प्रमितेर्भाववत्ता यदभावे चाभाववत्ता तत्तत्र साधकतमम् ।
वैशेषिक - यहां पर नैयायिक द्वारा मान्य कारक साकल्य का खंडन किया सो ठीक है, पर हमारा सन्निकर्ष तो सिद्ध स्वरूप है, अतः आपको उसे प्रमाण मानना चाहिये, क्योंकि प्रमिति की उत्पत्ति में वह साधकतम होता है । यह बात तो सुप्रसिद्ध ही है कि आंख का घट के साथ संयोग होता है, तथा रूप के साथ संयुक्तसमवाय होता है इसी तरह रूपत्व के साथ उसका संयुक्तसमवेतसमवायादि होता है, तभी जाकर उनके वे ज्ञानजनक- ज्ञान को उत्पन्न करनेवाले होते हैं- उनके ज्ञान को उत्पन्न करते हैं, साधकतम के साथ प्रमाण की व्याप्ति है, न कि ज्ञानत्व और अज्ञानत्व के साथ । जैसे कि संशयादिक अथवा प्रमेय आदि के साथ प्रमाण की व्याप्ति नहीं है, उसी प्रकार ज्ञानत्व और अज्ञानत्व के साथ भी उसकी व्याप्ति नहीं है ।
जैन - यह कथन बिना सोचे समझे किया है । क्योंकि सन्निकर्ष प्रमिति की उत्पत्ति के लिये - प्रमिति क्रिया के प्रति - साधकतम नहीं है । जिसके होनेपर प्रमिति होती है और नहीं होने पर नहीं होती है वह उसके प्रति साधकतम बनता है । "भावाभावयोस्तदुवत्ता साधकतमत्वम् "
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जिसके होने पर होना और उसके अभाव में नहीं होना वही साधकतम है। ऐसा कहा गया है, सो ऐसा साधकतमपना सन्निकर्ष में नहीं है, क्योंकि सन्निकर्ष होने ६
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