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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
पायस्तस्य वत्र तथाविधार्थ परिच्छित्तिरुत्पद्यते । प्रतिबन्धापायश्च प्रतिपत्त: सर्वज्ञसिद्धिप्रस्ता प्रसाधयिष्यते ।
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न च योग्यताया एवार्थपरिच्छित्तौ साधकतमत्वता प्रमाणत्वानुषङ्गात् 'ज्ञानं प्रमाणम्' इत्यस्य विरोध: ; अस्याः स्वार्थग्रहणशक्तिलक्षणभावेन्द्रियस्वभावायाः यदसन्निधाने कारकान्तरसन्निधानेऽपि यन्नोत्पद्यते तत्तत्कररणकम्, यथा कुठारासन्निधाने कुठार ( काष्ठ ) च्छेदनमनुत्पद्यमानं कुठारकरणकम्, नोत्पद्यते च भावेन्द्रियासन्निधाने स्वार्थ संवेदनं सन्निकर्षादिसद्भावेऽसीति तद्भावेन्द्रियकरणकम्' इत्यनुमानतः प्रसिद्धस्वभावायाः स्वार्थावभासिज्ञानलक्षणप्रमाण सामग्रीत्वतः तदुत्पत्तावेव साधकतमत्वोपपत्त ेः । ततोऽन्यनिरपेक्षतया स्वार्थपरिच्छित्तौ साधकतमत्वाज्ज्ञानमेव प्रमाणम् । तद्ध ेतुत्वा
प्रमेय का कर्म - अर्थात् रूपप्रमेय का - कर्म - तो उसका सहकारी होता नहीं है क्योंकि ज्ञान की उत्पत्ति में उसे कारण माना ही नहीं गया है, इन्द्रिय का कर्म तो प्राकाश और इन्द्रियके सन्निकर्ष के समय में है ही, क्योंकि वहां पर भी - आकाश और इन्द्र के सन्निकर्ष के समय में भी-नेत्र का खोलना उसका बन्द करना आदि क्रिया रूप इन्द्रिय कर्म होता ही है, इसलिये शक्तिरूप योग्यता तो बनती नहीं । हां, प्रतिबन्धक का प्रभाव होना यह योग्यता है ऐसा द्वितीय पक्ष मानो तो सब बात बन जाती है, अर्थात् जहां जिसके जैसा प्रतिबन्धक का अभाव ( ज्ञानावरणादि कर्मों का अभाव या क्षयोपशम ) हो जाता है वहां उसके वैसी ही प्रमिति उत्पन्न होती है । प्रमाता - आत्मा के प्रतिबन्धक कर्म का प्रभाव कैसे होता है इस बात को हम सर्वज्ञसिद्धि के प्रकरण में कहने वाले हैं ।
यदि कोई ऐसी शंका करे कि जब अर्थ के जानने में योग्यता ही साधकतम होती है, तो फिर वही योग्यता प्रमाण हो जायगी, फिर ज्ञान प्रमाण है यह बात रहेगी नहीं सो यह आशंका गलत है, क्योंकि स्व और पर को जानने की है शक्ति जिसकी ऐसी भावेन्द्रिय स्वभाव वाली जो योग्यता है, वह ज्ञानरूप ही है, जिसके न होने पर और कारकान्तर के होने पर भी जो उत्पन्न नहीं होता वह उसके प्रति करण माना जाता है, जैसे कुठार के न होने पर काठ का छेदन नहीं होता इसलिये कुठार को काठ छेदन के प्रति करण माना जाता है । उसी प्रकार भावेन्द्रिय के न होने पर स्व पर का ज्ञान नहीं होता भले ही सन्निकर्षादि मौजूद रहें, अतः उसके प्रति भावेन्द्रिय को ही करण माना जाता है, इस प्रकार स्व पर का जानना है लक्षण जिसका ऐसी प्रसिद्ध स्वभाववाली योग्यता से प्रमिति उत्पन्न होती है अतः वही उसके
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