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प्रमेयकमलमार्तण्डे
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इतरेतराभाव-'स्वभावाद् स्वभावान्त र व्यावृत्ति:-इतरेतराभावः” अर्थात् एक स्वभाव या गुण, धर्म, अथवा पर्यायकी अन्यस्वभावादि से भिन्नता है वह इतरेतराभाव कहलाता है।
___ इन्द्रियवृत्ति-चक्षु आदि इन्द्रियोंका अपने विषयों की ओर प्रवृत्त होना इन्द्रियवृत्ति है और वही प्रमाण है ऐसा सांख्य कहते हैं ।
इष्ट प्रयोजन- ग्रथमें कथित विषय इष्ट होना । उत्तंभकमणि-अग्निको दीप्त करानेवाला कोई रत्न विशेष ।
कारक साकल्य-कारक साकल्य-कर्ता, कर्म प्रादि कारकोंकी पूर्णता होना कारक साकल्य कहलाता है, नैयायिक ज्ञानकी उत्पत्तिमें सहायक जो भी सामग्री है उसको कारक साकल्य कहते हैं और उसीको प्रमाण मानते हैं।
खर विषाण-गधेके सींग ( नहीं होते ) खर रटित-गधेका चिल्लाना, रेंकना खर रटित कहलाता है । खपुष्प-आकाशका पुष्प ( नहीं होना)
ग्राह्य-ग्राहक-ग्रहण करने योग्य पदार्थ ग्राह्य और ग्रहण करनेवाला पदार्थ ग्राहक कहलाता है।
चक्रक दोष-जहां तीन धर्मोंका सिद्ध होना परस्परमें अधीन हो, अर्थात एक प्रसिद्ध धर्म या वस्तुसे दूसरे धर्म आदिकी सिद्धि करना और उस दूसरे प्रसिद्ध धर्मादि से तीसरे धर्म या वस्तु की सिद्धि करनेका प्रयास करना, पुनश्च उस तीसरे धर्मादि से प्रथम नंबरके धर्म या वस्तुको सिद्ध करना, इस प्रकार तीनोंका परस्परमें चक्कर लगते रहना, एक की भी सिद्धि नहीं होना चक्रक दोष हैं।
चोदना–सामवेद आदि चारों वेदोंको चोदना कहते हैं ।
चित्रावत-ज्ञानमें जो अनेक आकार प्रतिभासित होते हैं वे ही सत्य हैं, बाह्यमें दिखायी देनेवाले अनेक आकार वाले पदार्थ तो मात्र काल्पनिक हैं ऐसा बौद्धोंके चार भेदोंमें से योगाचार बौद्धका कहना है यही चित्राद्वैत कहलाता है, चित्र-नाना आकारयुक्त एक अद्वैत रूप ज्ञान मात्र तत्व है और कुछ भी नहीं है ऐसा मानना चित्रातवाद है।
चक्षसन्निकर्षवाद-नेत्र पदार्थों को छूकर ही जानते हैं, सभी इन्द्रियों के समान यह भी इन्द्रिय है अतः नेत्र भी पदार्थका स्पर्श करके उसको जानते हैं, यह चक्षुसन्निकर्षवाद कहलाता है, यह मान्यता नैयायिककी है।
ज्ञेय-ज्ञायक-जानने योग्य पदार्थ ज्ञेय कहलाते हैं और जानने वाला आत्मा ज्ञायक या ज्ञाता कहलाता है।
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