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परीक्षामुखसूत्र
६४६ है । मतलब जहांपर सिद्ध करने योग्य वस्तु या धर्मको सिद्ध नहीं कर सके और प्रागे आगे अपेक्षा तथा प्रश्न या आकांक्षा बढ़ती ही जाय, कहीं पर ठहरना नहीं होवे वह अनवस्था नामा दोष कहा जाता है।
अतीन्द्रियः-चक्षु आदि पांचों इन्द्रियों द्वारा जो ग्रहणमें नहीं प्रावे वे पदार्थ अतीन्द्रिय कहलाते हैं।
अणुमन:-परमाणु बराबर छोटा मन ( यह मान्यता यौग की है )
अन्वयव्याप्ति-जहां जहां साधन-धूमादि हेतु हैं वहां वहां साध्य-अग्नि आदिक हैं, ऐसी साध्य और साधन की व्याप्ति होना।
अन्वय निश्चय-अन्वयव्याप्तिका निर्णय होना। अदृश्यानुपलंभ-नेत्र के अगोचर पदार्थ का नहीं होना। अनुवृत्त प्रत्यय-गौ-गौ इस प्रकार का सदृश वस्तुओंमें समानता का अवबोध होना। अर्थ प्राकट्य-पदार्थ का प्रगट होना-जानना । अर्थ क्रिया-वस्तुका कार्यमें पा सकना, जैसे घटकी अर्थक्रिया जल धारण है । अनधिगतार्थग्राही-कभी भी नहीं जाने हुये पदार्थको जाननेवाला ज्ञान । अदुष्ट कारणारब्धत्व-निर्दोष कारणोंसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान । अर्थजिज्ञासा-पदार्थों को जाननेकी इच्छा होना। अपौरुषेय-पुरुष द्वारा नहीं किया हुआ पदार्थ ।
अत्यंताभाव-एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यरूप कभी भी नहीं होना, सर्वथा पृथक रहना अत्यंताभाव कहलाता है।
अनाधेय-"प्रारोपयितुमशक्यः" जिसका आरोपरण नहीं किया जा सकता उसे अनाधेय कहते हैं।
अप्रहेय-"स्फोटयितुमशक्यः' जिसका स्फोट नहीं कर सकते।
प्रात्मपरोक्षवाद-कर्ता आत्मा और करण ज्ञान ये दोनों सर्वथा परोक्ष रहते हैं किसी भी ज्ञान या प्रमाण द्वारा जाने नहीं जाते हैं, प्रात्मा ज्ञानके द्वारा अन्य अन्य पदार्थों को तो जान लेता है किन्तु स्वयं को कभी भी नहीं जानता, ऐसी मीमांसक के दो भेदों में ( भाट्ट और प्रभाकर ) से प्रभाकरकी मान्यता है।
प्रात्मख्याति-अपनी ख्याति [ विपर्यय ज्ञानमें अपना ही आकार रहता है ऐसा विज्ञानाद्वैतवादी कहते हैं । ]
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