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परीक्षामुखसूत्र
ज्ञात व्यापार-ज्ञाताकी क्रियाको ज्ञातृव्यापार कहते हैं ।
ज्ञानांतरवेद्य ज्ञानवाद-ज्ञान स्वयं को नहीं जानता उसको जाननेके लिये अन्य ज्ञानको आवश्यकता रहती है, ऐसी नैयायिककी मान्यता है।
तदुत्पत्ति-ज्ञान पदार्थसे उत्पन्न होता है ऐसा बौद्ध मानते हैं, तत्-पदार्थ से उत्पत्तिज्ञानको उत्पत्ति होना तदुत्पत्ति कहलाती है ।
तदाकार-ज्ञानका पदार्थ के प्राकारको धारण करना, यह भी बौद्ध मान्यता है ।
तदध्यवसाय-उसी पदार्थको जानना जिससे कि ज्ञान उत्पन्न हुआ है और जिसके प्राकार को धारण किये हुए है, यह तदध्यवसाय कहलाता है, यह सब बौद्ध मान्यता है ।
तादात्म्य संबंध-द्रव्योंका अपने गुणों के साथ अनादिसे जो मिलना है-स्वतः ही उस रूप रहना, एवं पर्यायके साथ मर्यादित कालके लिये अभेद रूपसे रहना है ऐसे अभिन्न संबंधको तादात्म्य संबंध कहते हैं । ( अर्थात वस्तुमें गुण स्वतः ही पहलेसे रहते हैं ऐसा जैनका अखंड सिद्धांत है । वस्तु प्रथम क्षणमें गुण रहित होती है और द्वितीय क्षणमें समवाय से उसमें गुण आते हैं ऐसा नैयायिक वैशेषिक मानते हैं, जैन ऐसा नहीं मानते हैं ।
तथोपपत्ति-साध्यके होनेपर साधनका होना । उस तरहसे होना या उसप्रकारकी बात घटित होना भी तथोपपत्ति कहलाती है।
दीर्घशष्कुली भक्षण-बड़ी तथा कड़ी कचौड़ीका खाना। द्विचन्द्र वेदन-एक ही चन्द्रमें दो चन्द्रका प्रतिभास होना । द्वंत-दो या दो प्रकारकी वस्तुओंका होना ।
धारावाहिक ज्ञान-एक ही वस्तुका एक सरीखा ज्ञान लगातार होते रहना, जैसे यह घट है, यह घट है, इस प्रकार एक पदार्थका उल्लेख करनेवाला ज्ञान ।
निर्विकल्प प्रत्यक्ष-नाम, जाति प्रादिके निश्चयसे रहित जो ज्ञान है वही प्रत्यक्ष प्रमाण है ऐसा बौद्ध कहते हैं।
निषेधु-अमुक वस्तु नहीं है इसप्रकार निषेध करनेवाला ज्ञान ।
निषेध्याधार-निषेध करने योग्य घट पट आदि पदार्थ हैं उनका जो आधार हो उसे निषेध्याधार कहते हैं।
प्रमाण-अपनेको और परको निर्णय रूपसे जानने वाले ज्ञानको प्रमाण कहते हैं, अथवा सम्यग्ज्ञानको प्रमाण कहते हैं।
प्रत्यक्ष प्रमाण-विशद-स्पष्ट ज्ञानको प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं । परोक्ष प्रमाण-प्रस्पष्ट ज्ञान ।
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