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________________ ६२६ प्रमेयकमलमार्तण्डे कथं च समलजलान्तरितार्थस्योपलम्भो न स्यात् ? ये हि तद्रश्मयः कठिनमतितीक्ष्णलोहाऽभेद्य स्फटिकादिक भिन्दन्ति तेषां जलेऽतिद्रवस्वभावे काऽक्षमा ? अथ नीरेण नाशितत्वान्न ते तद्भिन्दन्ति ; तहि स्वच्छजलव्यवस्थितस्याप्यनुपलम्भप्रसङ्गः। योग्यताङ्गोकरणे सर्व सुस्थम् । तत: प्रोक्तदोषपरिहारमिच्छता प्रतीतिसिद्धमप्राप्यकारित्वं चक्षुषोऽभ्युपगन्तव्यम् । तथाहि-'चक्षुरप्राप्तार्थप्रकाशकमत्यासन्नार्थाप्रकाशकत्वात्, यत्पुनः प्राप्तार्थप्रकाशकं तदत्यास नहीं जानती देखती ? जब वे चक्षुकिरणे कठोर-अतितीक्ष्ण लोहे से भी अभेद्य स्फटिकादिका भेदन कर सकती हैं तो अतिद्रव कोमल स्वभाववाले जल का भेदन करने में कैसे असमर्थ हो सकती हैं ? यदि कहा जावे कि चक्षुकिरणें जल के द्वारा नष्ट हो जाती हैं, अतः वे उसका भेदन नहीं कर पाती हैं, तो फिर उन किरणों के द्वारा स्वच्छ जल में स्थित पदार्थ का भी ग्रहण नहीं होना चाहिये, यदि कहा जाय कि किरणों में ऐसी ही योग्यता है कि वे मैले जल में जाकर तो नष्ट हो जाती हैं और स्वच्छजलमें नष्ट नहीं होती हैं तो ऐसी योग्यता के अङ्गीकार करने पर तो सब बात ठीक होगी। भावार्थ – अप्राप्यकारी होकर भो चक्षु अपनी योग्यता के बल से ही अपने योग्य विषय को प्रकाशित करती है, संपूर्ण पदार्थों को नहीं, जिसके जानने देखने की उसमें योग्यता होती है वह उसी रूपको देखती है अन्य को नहीं। इस तरह योग्यताको मानने से सब बात ठीक हो जाती है, कोई दोष भी नहीं आता । इस प्रकार पूर्वोक्त दोषों को ( स्फटिक अंतरित पदार्थको फोड़कर उसे छूना और मैले जलको फोड़ नहीं सकना इत्यादि को ) दूर करना चाहते हैं तो चक्षु में प्रतीतिसिद्ध अप्राप्य कारित्व ही स्वीकार करना चाहिये । अतः चक्षु पदार्थ को अप्राप्त होकर प्रकाशित करती है ( प्रतिज्ञा ) क्योंकि वह अतिनिकटवर्ती पदार्थ को प्रकाशित नहीं करती है ( हेतु ), जो प्राप्त अर्थ का प्रकाशक होता है वह अतिनिकटवर्ती पदार्थ का प्रकाशक देखा गया है जैसे कर्ण आदि इन्द्रियां, चक्षु निकटवर्ती पदार्थ को प्रकाशित नहीं करती, अतः वह अप्राप्तार्थ प्रकाशक ही है, इस प्रकार के अनुमान से चक्षु में अप्राप्यकारिता सिद्ध होती है । इस अनुमान में दिया हुआ "प्रत्यासन्नार्थ अप्रकाशकत्व हेतु प्रसिद्ध भी नहीं है, क्योंकि काच, कामला [काचबिन्दु, पीलिया] आदि अत्यन्त निकटवर्ती वस्तुको चक्षु प्रकाशित नहीं करती यह बात पहिले ही सिद्ध कर आये हैं । नैयायिक-यह अत्यासन्नार्थ अप्रकाशकत्व हेतु साध्यसम होनेसे असिद्ध है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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