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________________ चक्षुःसस्टिकर्षवादः ६२५ ग्रहणम् । तद्रश्मीनां तं प्रति गच्छतां स्फटिकाद्यवयविना प्रतिबन्धात् । तैस्तस्य नाशितत्वाददोषे तद्वयवहितार्थोपलम्भसमये स्फटिकादेरुपलम्भो न स्यात् । तस्योपरि स्थितद्रव्यस्य च पातप्रसक्तिः प्राधारभूतस्यावयविनो नाशात् । न हि परमाणवो दृश्याः कस्यचिदाधारा वा; अवयविकल्पनानर्थक्यप्रसङ्गात् । अवयव्यन्तरस्योत्पत्तेरदोषे तदा तद्वयवहितार्थानुपलम्भप्रसङ्गः । न चैवम्, युगपत्तयोनिरन्तरमुपलम्भात् । अथाशु व्यू हान्तरोत्पत्तेनिरन्तरस्फटिकादिविभ्रमः; तदभावस्याप्याशु प्रवृत्त रभावविभ्रमः किन्न स्यात् ? भावपक्षस्य बलीयस्त्वमित्ययुक्तम् ; भावाभावयोः परस्परं स्वकार्यकरणं प्रत्यविशेषात् । पदार्थको आधार दे नहीं सकते न वे दिखाई देने योग्य है, यदि परमाणु दृश्य और आधारभूत माने जायेंगे तो अवयवीकी कल्पना करना व्यर्थ ठहरता है । नैयायिक-चक्षु किरणों द्वारा उस अवयवीके नष्ट होते ही अन्य अवयवी उत्पन्न हो जाता है अतः उपर्युक्त कहे हुए दोष नहीं पाते हैं। जैन-ऐसा कहोगे तो उस नवीन उत्पन्न हुए स्फटिकादि अवयवी से अंतरित हो जाने के कारण पदार्थ की उपलब्धि नहीं हो सकेगी, किन्तु ऐसा होता नहीं है, क्योंकि एक साथ ही स्फटिक और पदार्थ दोनों ही सतत् उपलब्ध होते हैं। नैयायिक-प्रथम स्फटिकादि के नष्ट होते ही उसी क्षण अतिशीघ्रता से दूसरे स्फटिकादिकी-उत्पत्ति हो जाती है, अतः सततरूप से स्फटिकादि की उपलब्धि का भ्रम हो जाया करता है ? जैन-तो फिर उस स्फटिक आदि अवयवीसे निर्मित डब्बी का शीघ्र अभाव होने से प्रभाव की कल्पना को ही भ्रम रूप क्यों न माना जाय । नैयायिक अभाव की अपेक्षा भाव बलवान होता है, अतः स्फटिक आदि का अभाव ग्रहण में नहीं आकर स्फटिक प्रादि का सद्भाव ही ग्रहण में आता है ? जैन- यह कथन अयुक्त है, क्योंकि भाव और प्रभाव दोनों ही समानरूप से बलवान् हैं, अतः वे अपने २ कार्य को बराबर करते ही हैं । किञ्च- यदि नेत्ररश्मियां पदार्थ को छुकर जानती हैं और स्फटिक के अन्तर्गत पदार्थ को आवरण करने वाले उस स्फटिक आदि का भेदन कर जान लेती हैं इत्यादि; सिद्धांत माना जाता है तो प्रश्न होता है कि मलिन जल में रखे हुए पदार्थ को वे क्यों ७९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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