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________________ चक्षुः सन्निकर्षवादः ६२७ न्नार्थ प्रकाशकं दृष्ट' यथा श्रोत्रादि, प्रत्यासन्नार्थाप्रकाशकं च चक्षुस्तस्मादप्राप्तार्थप्रकाशकम्' इति । न चायमसिद्धो हेतु ; काचकामलाद्यत्यासन्नार्थप्रकाशकत्वस्य चक्षुषि प्रागेव प्रसाधितत्वात् । ननु साध्याविशिष्टय हेतु:, 'पर्युदासप्रतिषेधे हि यदेवस्याप्राप्यकारित्वं तदेवात्यासन्नार्थाप्रकाशकत्वम्' इति । प्रसज्यप्रतिषेधस्तु जैनैर्नाभ्युपगम्यते अपसिद्धान्तप्रसङ्गात्; इत्यप्यनुपपन्नम् ; प्रसङ्गसाधनत्वादेतस्य । हि प्राप्यकारित्वात्यासन्नार्थप्रकाशकत्वयोर्व्याप्यव्यापकभावसिद्धौ सत्यां परस्य व्यापकाभावे क्योंकि इस हेतु का जो अवयव पद "अप्रकाशकत्वात्" है सो इसमें नकार "न प्रकाशकत्वं अप्रकाशकत्वं” ऐसा नव् समासरूप है, यह समास पर्यु दास और प्रसज्यप्रतिषेध के भेद से दो प्रकार का है, सो इस “न” को आप यदि पर्युदास रूप नव् समास स्वीकार करते हो तब जो मतलब अप्राप्यकारी इस साध्य पद का होता है वही प्रत्यासन्नार्थप्रकाशकत्व इस हेतु पद का होता है, सो यही साध्य के समान हेतु कहलाया और यदि प्रकाशकत्व में नकार का अर्थ प्रसज्यप्रतिषेध सर्वथा निषेध करनेरूप लेते हो तो जैन को यह इष्ट नहीं है, क्योंकि आप प्रभाव को तुच्छाभावरूप नहीं मानते हैं, यदि मानेंगे तो अपसिद्धान्त का प्रसंग प्राप्त होता है । जैन - यह सारा कथन प्रयुक्त है, यह हमारा अनुमान प्रसङ्ग साधन के लिये है, इसी का विशेष विवेचन करते हैं— कर्ण आदि इन्द्रियों में प्राप्यकारित्व का और प्रत्यासन्नार्थप्रकाशकत्व का व्याप्य - व्यापक भाव सिद्ध हो गया था, उसके सिद्ध होने पर जो नैयायिक को इष्ट चक्षु में व्यापक का अभाव ( प्रत्यासन्नार्थप्रकाशकत्व का अभाव) करना इष्ट है सो उसके द्वारा अनिष्ट प्राप्यकारित्वरूप जो व्याप्य है उसका अभाव भी सिद्धकर देना, इस अनुमान का प्रयोजन है । अतः हेतुका साध्यसम होना दोषास्पद नहीं है । तथा यह प्रत्यासन्नार्थ प्रकाशकत्व हेतु अनैकान्तिक और विरुद्ध भी नहीं है क्योंकि यह हेतु विपक्ष में अथवा उसके एकदेश में प्रवृत्त नहीं होता । भावार्थ - जैन का यह अनुमान प्रमाणका प्रयोग है कि "चक्षुः श्रप्राप्तार्थप्रकाशकं अत्यासन्नार्थं अप्रकाशकत्वात् " इस अनुमान में साध्य अप्राप्तार्थप्रकाशकत्व है, उसका अर्थ वस्तु को प्राप्त किये ( छूये) विना- प्रकाशित करना [ जानना ] है, तथा हेतु प्रत्यासन्नार्थं अप्रकाशकत्व है इसका अर्थ निकटवर्ती पदार्थ को प्रकाशित नहीं कर सकना ऐसा है, सो ये दोनों साध्यसाधन समान से हो जाते हैं, अतः नैयायिक ने हेतु को साध्यसम कहा है, सो इस पर प्राचार्य कहते हैं कि हमने जो इस अनुमान का प्रदर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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