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________________ ६१८ प्रमेयकमलमार्तण्डे स्यात्, न चैवम्, तदपेक्षतया मनुष्यपारावतबलीव दीनां धवललोहितकालरूपतयानुष्णस्पर्शस्वभावतया चास्योपलम्भात् । तन्न गोलकं चक्षुः । नाप्यन्यत् ; तद्ग्राहकप्रमाणाभावेनाश्रयासिद्धत्वप्रसङ्गाद्ध तोः । 'रूपादीनां मध्ये रूपस्यैव प्रकाशकत्वात्' इति हेतुश्च जलाउनचन्द्रमाणिक्यादिभिरनैकान्तिकः । तेषामपि पक्षीकरणे पक्षस्य प्रत्यक्षबाधा, सर्वो हेतुरव्यभिचारी च स्यात् । न च जलाधन्तर्गतं तेजोद्रव्यमेव रूपप्रकाशकमित्यभिधातव्यम् ; सर्वत्र दृष्ट हेतुवैफल्यापत्तः। तथा च दृष्टान्तासिद्धिः, प्रदीपादावप्यन्यस्यैव तत्प्रकाशकस्य दीपक के समान नेत्र तैजस है तो उन्हें प्रकाश की आवश्यकता नहीं होनी चाहिये और उष्णस्पर्श आदि रूप से उनकी उपलब्धि होनी चाहिये थी, किन्तु उनमें ऐसा कुछ भी उपलब्ध नहीं होता, मनुष्य कबूतर बैल आदि प्राणियों को तो पदार्थ को देखने के लिये प्रकाश की आवश्यकता पड़ती है, तथा उनकी प्रांखें धवल, कृष्ण, अनुष्णस्पर्शस्वभाववाली उपलब्ध होती हैं । अतः उस गोलकचक्षुको धर्मी बनाकर उसमें तैजसत्व सिद्ध करना शक्य नहीं है। यदि रश्मिरूप चक्षुको पक्ष बनावें तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि आपके उस रश्मि चक्षुको ग्रहण करनेवाला कोई प्रमाण नहीं है, अतः हेतु आश्रयासिद्ध होगा [ जिस हेतुका आश्रय असिद्ध हो उसे आश्रयासिद्ध कहते हैं ] रूपादि में से एकरूप को ही प्रकाशित करता है ऐसा जो आपने हेतु दिया है वह जल, अंजन, चन्द्रमा, माणिक्यरत्न और काच आदि के साथ अनैकान्तिक हो जाता है, क्योंकि जलादि पदार्थ तेजस न होकर भी केवल रूप को ही प्रकाशित करते हैं । यदि कहा जाय कि हम जलादिक को भी पक्ष के अन्तर्गत ही मानेंगे तो पक्ष प्रत्यक्ष से बाधित होता है, तथा इस तरह तो कोई भी हेतु व्यभिचारी नहीं हो सकेगा, सभी हेतु अव्यभिचारी होवेंगे। यदि नैयायिक की ऐसी मान्यता हो कि जल, अंजन, रत्न आदि में तेजोद्रव्य रहता है और वही रूपको प्रकाशित करता है सो वह भी नहीं बनता, क्योंकि इस तरह मानने पर तो अपने २ कार्यों के प्रति जो साक्षात् कारण देखे जाते हैं वे सब व्यर्थ कहलावेंगे। [मतलब-जिस कारण से जो कार्य उत्पन्न होता हुआ प्रत्यक्ष से देखने में आता है वह इस मान्यता के अनुसार कारण नहीं माना जाकर और कोई दूसरा कारण मानना पड़ेगा क्योंकि जल आदि में रूप का प्रकाशन जल से ही हो रहा है तो भी उसको कारण न मानकर तेजोद्रव्य को कारण माना जा रहा है ] तथा इस प्रकार मानने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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