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________________ चक्षुः सन्निकर्षवादः ६१६ कल्पनाप्रसङ्गात् । प्रत्यक्षबाधनमुभयत्र । निराकरिष्यते च "नार्थालोको कारणम्" [ परी० २।६ ] इत्यत्रालोकस्य रूपप्रकाशकत्वम् । किञ्च, रूपप्रकाशकत्वं तत्र ज्ञानजनकत्वम् । तच्च कारणविषयवादिनो घटादिरूपस्याप्य में और भी एक प्रापत्ति यह आवेगी कि दृष्टांत प्रसिद्ध हो जावेगा, अर्थात् जब जल आदि में रूप प्रकाशन करनेवाला जल से न्यारा कोई दूसरा पदार्थ है तो इसी तरह से दीपक में भी अपने रूपको प्रकाशन करनेवाला कोई न्यारा पदार्थ ही होगा, ऐसी कोई कल्पना कर सकता है, तुम कहो कि दीपक में अन्य कोई पदार्थ उसके रूप को प्रकाशित करनेवाला है ऐसा माना जाय तो प्रत्यक्ष से बाधा आती है ? तो फिर जल में अन्य कोई रूपको प्रकाशित करने वाला है ऐसी मान्यता में भी तो प्रत्यक्ष से बाधा श्राती है । तथा श्रापका ( नैयायिक का ) जो यह हठाग्रह है कि रश्मिरूप प्रकाश ही रूप को प्रकाशित करता है सो हम इसका आगे इसी परिच्छेद के "नार्थालोको कारणं" इत्यादि ६ वें सूत्र की टीका में निराकरण करनेवाले हैं । किञ्च - तेजस चक्षु या जल में रहने वाला जो तेजोद्रव्य रूप को प्रकाशित करता है ऐसा आप (नैयायिक ) मान रहे हैं सो रूप प्रकाशकत्व का अर्थ होता है उस पदार्थ के रूपका ज्ञान उत्पन्न करना । सो कारण विषयवादी [ जो कारण ज्ञानको पैदा करता है वही उस ज्ञानका विषय होता है ऐसा मानने वाले ] श्रापके यहां रूप प्रकाशकत्व हेतु, घट आदि के साथ व्यभिचरित हो जाता है, क्योंकि जो रूपप्रकाशक होता है वह तेजस होता है सो ऐसा घट आदि में नहीं है, घटादि पदार्थ [ घटादि का रूप ] रूप प्रकाशक तो है [ रूपज्ञान को पैदा तो कर देता है ] पर वह तैजस नहीं है, अतः “रूप प्रकाशकत्वात् " यह हेतु साध्याभाव में भी रहने के कारण व्यभिचारी हो जाता है । नैयायिक - उस रूपप्रकाशकत्व हेतु में एक "करणत्वे सति" ऐसा विशेषण जोड़ देने पर वह व्यभिचरित नहीं होगा, अर्थातु तैजस चक्षु है क्योंकि करण होकर वह रूप आदि में से एकरूप का ही प्रकाशन करता है" इस अनुमान से व्यभिचार का निवारण हो जावेगा ? जैन - यह कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि इसमें भी प्रकाश और पदार्थ के सन्निकर्ष के साथ और चक्षु तथा रूप के संयुक्त समवाय संबंध के साथ यह कररण विशेषण युक्त रूप प्रकाशकत्व हेतु श्रनैकान्तिक होता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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