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________________ चक्षुःसन्निकर्षवादः ६१७ च प्रभासुर प्रभारहितनयनानां तेजसत्वं सिद्ध यतः सिद्धो हेतुः ? किमत एवानुमानात्, तदन्तराद्वा ? प्राद्यविकल्पेऽन्योन्याश्रयः-सिद्ध हि तेषां रश्मिवत्त्वे तैजसत्वसिद्धिः, ततश्च तत्सिद्धिरिति । अथ 'चक्षुस्तैजसं रूपादीनां मध्ये रूपस्यैव प्रकाशकत्वात् प्रदीपवत्' इत्यनुमानान्तरात्तत्सिद्धिः; न; अत्रापि गोलकस्य भासुररूपोष्णस्पर्शरहितस्य तेजसत्वसाधने पक्षस्य प्रत्यक्षबाधा, 'न तै जसं चक्षुः तमःप्रकाशकत्वात्, यत्पुनस्तैजसं तन्न तमःप्रकाशकं यथालोकः' इत्यनुमानबाधा च । प्रसाधयिष्यते च 'तमोवत्' इत्यत्र तमसः सत्त्वम् । प्रदीपवत्त जसत्वे चास्यालोकापेक्षा न स्यादुष्णस्पर्शादितयोपलम्भश्च नेत्रों में भासुररूप देखकर मनुष्यादि के नेत्र में भी तेजसत्व सिद्ध करते हो तो गाय आदि के नेत्र में कालेपन की और स्त्री पुरुषों के नेत्रों में धवलपने की प्रतीति द्वारा सामान्यतः सभी के नेत्रोंमें पार्थिवपना या जातीयपना भी सिद्ध करना चाहिये ? आप प्रभाभासुर रहित नेत्रों में तैजसपना किस प्रकार सिद्ध करते हैं कि जिससे तैजसत्व हेतु सिद्ध माना जाय, क्या तेजसत्व हेतुवाले इसी अनुमान से तैजसत्व हेतु को सिद्ध करते हो कि किसी अन्य अनुमान से ? यदि इसी तैजसत्व हेतुवाले अनुमानसे सिद्ध करते हैं तो अन्योन्याश्रय दोष पाता है क्योंकि मनुष्योंके नेत्रों में किरणपना सिद्ध हो तब तो तैजसत्व हेतु की सिद्धि हो और तेजसत्व हेतु की सिद्धि होने पर नेत्रों में किरणपना सिद्ध हो, इस तरह एक की सिद्धि एक के आधीन होने से अन्योन्याश्रय दोष स्पष्ट है। नैयायिक-चक्षु में तेजसत्व अनुमानान्तर से सिद्ध करते हैं, वह इस प्रकार से है-"चक्षु तैजस है क्योंकि वह रूप रस आदि गुणों में से मात्र एक रूप को ही प्रकाशित करती है, जैसे दीपक रूपादि किरणों में से एक रूपको प्रकाशित करने से तैजस माना जाता है। जैन-यह अनुमान भी ठीक नहीं है, आप यहां भासुररूप और उष्णस्पर्श रहित गोलक को पक्ष बनाकर उसमें तैजसत्व की सिद्धि करते हो तो उसमें प्रत्यक्ष बाधा आती है । तथा चक्षु तैजस नहीं है क्योंकि वह अन्धकार को प्रकाशित करती है, जो तैजस होता है वह अंधकार का प्रकाशक नहीं होता, जैसा कि आलोक, इस अनुमान प्रमाण से भी पक्ष और हेतु में बाधा आती है । यदि कहा जाय कि अंधकार तो प्रकाशाभावरूप है वह स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है तो हम आपको आगे सिद्ध करके बतायेंगे कि अंधकार भी प्रकाश के समान वास्तविक सत्त्व युक्त एक स्वतन्त्र पदार्थ है । यदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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