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पद्यते । प्रतिदूरदेशे हि पूर्ण संस्थानमात्रं प्रतिपद्य 'अयमेवंविधसंस्थानविशिष्टोर्थो वृक्षो हस्ती पलालकूटादिर्वा एवंविधसंधानविशिष्टत्वान्यथानुपपत्तेः' इत्युत्तरकालं विशेषं विवेचयति । तरतमभावेन तत्प्रदेशसन्निधाने तु संस्थानविशेषविशिष्टमेवार्थ वैशद्यतरतमभावेनाध्यक्षत एव प्रतिपद्यते, विशदज्ञानावरणस्य तरतमभावेनैवापगमात् ।
ननु च परोक्षेपि स्मृतिप्रत्यभिज्ञादिस्वरूपसंवेदनेऽस्याध्यक्षलक्षणस्य सम्भवादतिव्याप्तिरेव ;
विशदत्व विचारः
स्पष्ट ज्ञान होता है । अथवा एक ही व्यक्तिको उसी वृक्षका कभी तो स्पष्टज्ञान होता है, कभी प्रतिस्पष्ट ज्ञान होता है, जबकि वह वृक्ष वैसे का वैसा ही निकटवर्ती है, सो ऐसी ज्ञानों में यह वैशद्य की तरतमता विशदज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम की तरतमता के कारण हुआ करती है ।
शंका - परोक्षभूतस्मृति, प्रत्यभिज्ञान आदि के स्वरूपसंवेदन में भी यह प्रत्यक्ष का लक्षण चला जाता है, अतः प्रत्यक्ष का यह लक्षण प्रतिव्याप्ति दोष युक्त है ?
समाधान - यह कथन ठीक नहीं है । क्योंकि उन ज्ञानोंका जो स्वरूपसंवेदन है वह परोक्ष नहीं है क्योंकि ज्ञानावरण के क्षयोपशम से होनेवाले इन क्षायोपशमिक ज्ञानोंका जो स्वरूपसंवेदन है, वह अनिन्द्रिय जो मन है उसकी प्रधानता से उत्पन्न होता है, इसलिये वह मानस प्रत्यक्ष इस नाम से कहा जाता है जैसा कि सुख आदि का स्वरूपसंवेदन प्रत्यक्ष नामसे कहा जाता है । ज्ञानों में जो प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसा व्यपदेश होता है वह बाहिरी पदार्थोंको ग्रहण करने की अपेक्षा से होता है । अर्थात् क्षायोपशमिक ज्ञान जब बाहिरी घट पट आदि पदार्थों को जानने में प्रवृत्त होते हैं तब उनमें से किसी को प्रत्यक्ष और किसी को परोक्ष ऐसे नाम से कहते हैं । क्योंकि बाहिरी पदार्थों के ग्रहण में प्रमाणान्तर का व्यवधान और अव्यवधान के कारण वंशद्य और वैशद्य दोनों होना संभव है जिस ज्ञानमें पदार्थ को ग्रहण करते समय प्रमाणान्तर का व्यवधान पड़े वह ज्ञान परोक्ष और जिसमें व्यवधान न पड़े वह ज्ञान प्रत्यक्ष कहा गया है, किन्तु अपने स्वरूप को ग्रहरण करने में [ अपने आपको जानने में ] अन्य ज्ञानों का व्यवधान नहीं पड़ता है, अतः वे सभी ज्ञान स्वसंवेदन की अपेक्षा तो प्रत्यक्ष ही हैं ।
विशेषार्थ - यहां पर प्रत्यक्ष का लक्षण "विशदं प्रत्यक्षम् " ऐसा किया है, और वैशद्य का लक्षण अन्य प्रमाण का व्यवधान हुए बिना
पदार्थ का ग्रहण होना
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